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________________ मरणकाण्डका - २९० अर्थ - जो पुरुष नारियों पर विश्वास करता है, समझ लेना चाहिए कि वह व्याघ्र, विष, जल, सर्प, शत्रु, चोर, अग्नि और हाथी पर विश्वास करता है।।९८९ ।। व्याघ्रादयो महादोषं, कदाचित्तं न कुर्वते। लोकद्वय-विघातिन्यो, यं स्त्रियो वक्रमानसाः ॥९९० ।। __ अर्थ - पूर्व श्लोक में कहे गये व्याघ्र-सर्प आदि मनुष्य का कभी भी ऐसा अहितकारी महादोष नहीं करते जैसा इस लोक और परलोक को नाश करने वाली कुटिल मन युक्त दुराचारिणी स्त्रियाँ करती हैं ।।९९० ।। सकश्मलाशया रामाः, प्रावृषेण्या इवापगाः । स्तेनवत्स्वार्थ-तनिष्ठाः, सर्वस्व-हरणोद्यताः ।।९९१॥ अर्थ - जैसे वर्षा ऋतु में नदियों का जल मैल से युक्त होता है, वैसे ही स्त्रियों का मन सदा राग, द्वेष, मोह, ईर्षा, परनिन्दा एवं मायाचारी आदि दोषों से कलुषित रहता है। जैसे चोर अपने चौर कर्म रूप स्वार्थ में सदानिष्ठ रहते हैं एवं सर्वधन हरण करने में उद्यत रहते हैं, वैसे दुराचारिणी स्त्रियाँ भी मथुर वचन एवं रतिक्रीड़ा आदि की अनुकूलता देकर पुरुष का धनहरण करने में उद्यमशील रहती हैं।९९१ ।। दारिद्र्यं विनसा व्याधि, यावन्नाप्नोप्ति मानवः । जायते तावदेवास्याः, कुलपुत्र्या अपि प्रियः ।।९९२॥ अर्थ - कुलवन्ती नारियों को भी पति प्रायः तभी तक प्रिय होता है जब तक उसको दरिद्रता, बुढ़ापा या व्याधि आदि का प्रकोप नहीं आता ||९९२॥ प्रसूनमिव निर्गन्धं, द्वेष्यो भवति निर्धनः। म्लानमालेव वर्षिष्ठो, रोगीक्षुरिव नीरसः ।।९९३ ।। अर्थ - यौवन, धन एवं शक्ति ये तीन विशेषताएँ ही पुरुष को प्रधान आकर्षण प्रदान करती हैं, अत: स्त्रियों को निर्धन पुरुष गन्धरहित पुष्प के सदृश, वृद्ध पुरुष मुरझाई हुई माला के सदृश और रोगी पुरुष रस निकाले हुए नीरस गन्ने के सदृश अप्रिय होता है ।।९९३॥ वञ्चयन्ति नराम्नार्यः, समस्तानपि हेलया! जानन्ति वचनं पोस्नं, तदीयं न नराः पुनः ।।९९४ ॥ अर्थ - नारियाँ समस्त पुरुषों को आयास के बिना हास्य, शपथ, मधुर किन्तु असत्य भाषण आदि के द्वारा लीला मात्र में ठग लेती हैं, किन्तु पुरुष द्वारा किये गये कपट को स्त्रियाँ तत्काल जान लेती हैं।९९४ ।। यथा-यथा स्त्री पुरुषेण मन्यते, तथा-तथा सा कुरुते पराभवम्। यथा-यथा कामवशेन मन्यते, तथा-तथा सा कुरुते विटम्बनाम् ।।९९५ ।। अर्थ - जैसे-जैसे पुरुष स्त्री को मान्यता देता है अर्थात् आदर करता है, वैसे-वैसे स्त्री उसका निरादर करती है और जैसेजैसे कामार्त पुरुष द्वारा उसकी मान्यता होती है, वैसे-वैसे वह नारी पुरुष का तिरस्कार कर विडम्बना करती है ।।९९५॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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