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________________ मरणकण्डिका - २८९ देवरति राजाको किसी बहाने नदीमें डालकर खुद उस पंगु पुरुषके साथ रहने लगी। पंगुको एक टोकरीमें रखकर अपने मस्तक पर लेकर जगह-जगह भ्रमण करती रही, पंगु मधुर गान सुनाता, जिससे दोनोंकी आजीविका होती थी। इधर राजा नदीके प्रवाहसे किसीतरह निकल आया और पुण्योदयसे मंगलपुरीका शासक-राजा बन गया। घूमती हुई रक्ता वहाँ पहुँची । राजाने पहिचान लिया और इस स्त्री-चरित्रसे विरक्त होकर उसने दीक्षा ग्रहण की। इसप्रकार पर-पुरुष पर आसक्त हुई नारी की दुष्ट चेष्टायें हुआ करती हैं। गोपवत्या क्रुधा छित्वा, ग्रामकूट सुता-शिरः। राजा सिंहबलः कुक्षौ, शक्त्येयापरया हतः॥९८७ ॥ अर्थ - ईर्ष्यालु गोपवती ने क्रोधावेश में ग्रामकूट की पुत्री का मस्तक काट दिया था और अपने पति के पेट में भाला घोंप कर उसे मार डाला था ||९८७॥ * गोपवतीको कथा * राजा सिंहबलकी रानी गोपवती थी। यह अत्यन्त दुष्ट स्वभाववाली थी। एक दिन राजाने ग्रामकूट नामके नगरके शासक की सुभद्रा नामकी पुत्रीसे विवाह कर लिया। इससे गोपवती क्रोधित हुई, उसने सुभद्राको मार डाला और उसका कटा हुआ मस्तक राजाको दिखाया, राजाको इससे महान् दुःख हुआ, जैसे ही वह उसको दण्डित करने में उद्यत हुआ वैसे ही उस दुष्टाने उसको भी भाले द्वारा मार डाला। दुष्ट स्त्रीके लिये क्या कोई कुकृत्य शेष रहता है जिसे वह न कर सके ? वह तो सब कुकृत्य कर डालती है। वीरवत्यापि शूलस्थस्तेन छिन्नोष्ठया निजः। ओष्ठश्च्छिन्नो ममानेन, पापयेत्युदितं मृषा ॥९८८॥ अर्थ - शूली स्थित यार के द्वारा जिसका ओष्ठ काट लिया गया था ऐसी पापी एवं दुराचारिणी वीरवती ने राजा के पास जाकर झूठ कहा कि मेरे पति ने मेरा ओष्ठ काट लिया है ।।१८८॥ *वीरवती की कथा * दत्त नामके वैश्य की पत्नीका नाम वीरवती था। यह एक चोरके प्रेम में फंसी थी। एक दिन चोरी करते हुए रंगे हाथ वह चोर पकड़ा गया। उसे राजाने शूलीपर चढ़ानेकी सजा दी। चांडालने उसे श्मशानमें ले जाकर शूलीपर चढ़ा दिया । वीरवती दुःखी हुई। रातके समय उससे अंतिमबार मिलनेके लिये श्मशानमें पहुँची, ऊँचे स्थान शूलीपर चढ़े हुए चोरका आलिंगन करनेके लिये उसने अधजली लकड़ियों और शव इकट्ठे किये और उसपर चढ़कर उससे मिलने लगी। इतनेंमें लकड़ियाँ खिसक गयीं और वह अकस्मात् नीचे गिर पड़ी। उससे उसका ओठ चोरके मुंहमें रह गया-दाँतोंसे कट गया। वह दुष्टा दौड़कर चुपकेसे घर लौटी। वहाँ शोर मचाया कि पतिने मेरा ओठ काट डाला है। राजाके पास शिकायत गयी। उसने पतिको दण्डित करना चाहा किन्तु इतनेमें किसीसे रहस्यका पता चला। तब राजाने निरपराध पति दत्त को छोड़ दिया और दुराचारिणी बीरवतीका मुख काला कर शिरके केशोंका मुंडन करवाके गधेपर बैठाकर उसको अपने देशके बाहर निकाल दिया। व्याने विषे जले सर्प, शत्रौ स्तेनेऽनले गजे। स विश्वसिति नारीणां,यो विश्वसिति दुर्मनाः ।।९८९॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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