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________________ मरणण्डिका - ५२ भाव प्रतिक्रमण - मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, राग, द्वेष, आहारादि चारों संज्ञाएँ, निदानबन्ध और आर्त-रौद्र आदि रूप अशुभ-परिणामों का और पुण्यास्रवभूत शुभ परिणामों का भी त्याग करना भाव प्रतिक्रमण प्रश्न - प्रत्याख्यान किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं ? उत्तर - "मैं भविष्य में यह-यह कार्य नहीं करूँगा", इस प्रकार के संकल्प को प्रत्याख्यान कहते हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से इसके छह भेद हैं। यथा नाम प्रत्याख्यान - 'मैं अयोग्य नामों का उच्चारण नहीं करूंगा' ऐसा संकल्प करना नाम प्रत्याख्यान है। इसी प्रकार स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रतिक्रमण के जो-जो लक्षण ऊपर दिये गये हैं उन्हें भविष्य में भी नहीं करने की प्रतिज्ञा करना तद्-तद् प्रत्याख्यान का लक्षण है। प्रश्न - कायोत्सर्ग किसे कहते हैं ? उत्तर - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण ये पाँच शरीर हैं। इनमें से संयम का, केवलज्ञान का और मोक्ष का साधन होने से जीव का सबसे बड़ा उपकारी यह औदारिक शरीर ही है, किन्तु अन्य शरीरों की अपेक्षा यही शरीर सबसे अधिक अपवित्र है, क्योंकि इसका बीज माता-पिता का रजवीर्य है जो महा अपवित्र है। यह शरीर सप्त धातुओं से निर्मित है, जड़ स्वभावी है, अनित्य है, विनाशीक है, असार है, दुख का कारण है और दुख से ही धारण करने योग्य है। कायोत्सर्ग शब्द में काय और उत्सर्ग ये दो शब्द हैं। काय का अर्थ है औदारिक शरीर और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग। अर्थात् औदारिक शरीर का त्याग यह कायोत्सर्ग का अर्थ है। प्रश्न - औदारिक शरीर का त्याग तो मनुष्यायु समान होने पर ही हो सकता है फिर इसके त्याग का उपदेश कैसे दिया गया ? उत्तर - स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियाँ इस शरीर की अवयव स्वरूप हैं, ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण कर इसे पुष्ट करती हैं तथा इसी औदारिक शरीर के माध्यम से जीव विषयों को भोग कर अपने को सुखी मानता है, अत: उसका इस शरीर से ममत्व भाव हो रहा है, यही ममत्व भाव जीव के संसार-परिभ्रमण का कारण है, अतः आचार्यदेव ने इस शरीर से ममत्वभाव छोड़ने का उपदेश दिया है, शरीर को छोड़ने का नहीं। अर्थात् काय से ममत्वभाव का त्याग करना, यह कायोत्सर्ग का अर्थ है। प्रश्न - कायोत्सर्ग कैसे, कहाँ और कितने काल पर्यन्त करना चाहिए ? उत्तर - शरीर से निस्पृह होकर, स्थाणु की तरह शरीर को सीधा करके दोनों हाथों को लटका कर अथवा पद्मासन आदि मुद्रा में निश्चल बैठकर, शरीर को ऊँचा-नीचा न करके परीषहों और उपसों को जीतते हुए अर्थात् सहन करते हुए प्रशस्त ध्यान में लीन होकर कर्मों को नष्ट करने की अभिलाषा से जन्तुरहित एकान्त स्थान में कायोत्सर्ग करना चाहिए।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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