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________________ मरणकण्डिका - १२६ अर्थ - इस प्रकार जो साधु गुणपरिणाम आदि गुणों की खान स्वरूप वैयावृत्य करता है, वह तीन लोक में हलचल कर देनेवाले तीर्थंकर नामकर्म को प्राप्त करता है ।।३३३ ।। प्रश्न - क्या वैयावृत्य करनेवाले सभी साधुजन तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करते हैं? उत्तर - नहीं, वैयावृत्य करने का यह उत्कृष्ट फल कहा गया है। किसी भी कर्मप्रकृति के बन्ध में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का साहाय्य आवश्यक है। कार्य करते समय भावों की विशुद्धि एवं द्रव्य, क्षेत्र आदि उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य जैसे-जैसे प्राप्त होते हैं वैसा-वैसा फल प्राप्त होता है। यदि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध न भी हो तो भी नीरोग और रूपवान शरीर, बल, वीर्य, धैर्य एवं तेज आदि तो सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। लभमानो गुणानेव, वैयावृत्य-परायणः । स्वस्थः सम्पद्यते साधुः, स्वाध्यायोद्यत-मानसः ॥३३४ ।। अर्थ - वैयावृत्य में तत्पर साधु बहुत से महान् गुण प्राप्त कर लेता है, जब कि केवल स्वाध्याय में रत साधु अपने ही प्रयोजन में लगा रहता है ।।३३४ ।। प्रश्न - वैयावृत्यरत और स्वाध्यायरत इन दोनों में कौन साधु श्रेष्ठ है और क्यों ? उत्तर - स्वाध्याय में तत्पर रहनेवाले साधु से वैयावृत्य करनेवाला साधु श्रेष्ठ है, कारण कि स्वाध्याय में संलग्न साधु मात्र स्वयम् की ही आत्मोन्नति करता है, जबकि वैयावृत्य में तत्पर साधु स्वयं को भी और अन्य को भी उन्नत बनाता है। स्वाध्याय करनेवाले साधु पर यदि कोई विपत्ति आ जाती है तो उसे भी अपनी विपत्ति दूर कराने के लिए वैयावृत्य करनेवाले का मुखापेक्षी होना पड़ता है। आर्यिका संसर्ग दोष त्याज्या-सङ्गतिर्गरवद, वह्निज्वालेव तापिका। दुर्जीतेरिव निन्द्यायाः, दुष्कीति लभते ततः ।।३३५ ।। अर्थ - साधुजनों को आर्यिका की संगति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह संगति विषसदृश प्राण नाशक और अग्नि की ज्वाला सदृश सन्तापकारी है। अन्याय और निन्दा करने से जैसे अपयश होता है, वैसे ही आर्यिका की संगति करनेवाले मुनि का अपयश होता है॥३३५ ।। प्रश्न - आर्या-संगति को विष और अग्निज्वाला तुल्य क्यों कहा है? और अपयश हो जाने से क्या हानि है? उत्तर - जैसे विष प्राणहरण कर लेता है और अग्नि सन्ताप देती है, उसी प्रकार आर्यिका की संगति साधु के संयमरूपी प्राणों का नाश कर देती है, इसलिए विषतुल्य है और चित्त में सन्ताप उत्पन्न करती है, अत: अग्नितुल्य है। आर्यिका का अनुसरण करनेवाला साधु नियमत: अपकीर्ति का पात्र बनता है। प्रायः पाप एवं अपकीर्ति से भयभीत मिथ्यादृष्टि असंयमी सामान्य जन भी जब उत्तम आचरण करते हैं, तब योग्यायोग्य को भली प्रकार जाननेवाले साधु को तो अवश्य ही आर्यिका की संगति छोड़ देनी चाहिए। जितने त्याज्य पदार्थ हैं उन सबको त्यागने के लिए जब मुनिजन उद्यत हुए हैं तब उन्हें पाप और अपयश को ही देनेवाली आर्यिका की संगति अवश्य ही त्याग देनी चाहिए।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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