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________________ मरणकण्डिका - १२७ पतनशील शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है, उसका रक्षण करने में कोई समर्थ नहीं है, किन्तु यश का संरक्षण करना हमारा परम कर्त्तव्य है। करोड़ों वर्ष पूर्व जिनका शरीरनाश हो चुका है वे महापुरुष यश रूपी शरीर से अद्यावधि जीवित हैं, इसीलिए कीर्तिमान मानव को अमर कहा जाता है। अपयशी मनुष्य शरीर से जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है क्योंकि अपयश ही मानव का यथार्थ मरण है। स्थविरस्य प्रमाणस्य, शास्त्रज्ञस्य तपस्विनः । आर्यिका-सङ्गतेः साधोरपवादो दुरुत्तरः॥३३६॥ अर्थ - जो स्थविर अर्थात् वृद्ध हैं, प्रमाणभूत हैं, शास्त्रज्ञ हैं और तपस्वी हैं वे भी आर्यिकाओं की संगति से दुस्तर अपवाद को प्राप्त हो जाते हैं ।।३३६ ॥ न किं यूनोऽल्प-विद्यस्य, मन्दं विदधतस्तपः। कुर्वाणस्यार्यिका-सङ्ग, जायते जन-जल्पनम् ।।३३७ ।। अर्थ - (जब वृद्ध और शास्त्रज्ञ आदि गुणविशिष्ट साधु की यह गति होती है तब) जो युवा है, अल्प बुद्धिवाला है अर्थात् जिसे हिताहित का विचार कम है और जो विशेष तपस्वी नहीं है, वह साधु आर्यिका की संगति से लोकापवाद का भागी क्यों नहीं होगा? ॥३३७ ।। आर्यिका-मानसं सद्यो, यति-सङ्गे विनश्यति । सर्पिर्वतेः समीपे हि, काठिन्यं किं न मुञ्चति ॥३३८॥ स्वयं साधो: स्थिरत्वेऽपि, संसर्ग-प्राप्त-धृष्टता । क्षिप्रं विभावसोः सङ्गे, सा लाक्षेव विलीयते ।।३३९ ।। अर्थ - मुनि की संगति से आर्यिका का परिणाम शीघ्र ही विकृत हो जाता है। घृत को अग्नि के समीप रख देने पर क्या वह घृत अपना काठिन्यपना नहीं छोड़ देता है? अवश्य छोड़ देता है ।।३३८ ॥ जैसे अग्नि के सम्पर्क से लाख शीघ्र ही विलीन हो जाती है, वैसे ही स्वयं अपने आप एकदम स्थिरचित्त साधु भी आर्यिका की संगति प्राप्त कर धृष्टता को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् शीघ्र ही चंचल हो उठता है, अत: मुनि एवं आर्यिका दोनों को ही अन्योन्य परिचय या संसर्ग छोड़ देना चाहिए ।।३३९॥ अविश्वस्तोऽङ्गना-वर्गे, सर्वत्राप्यप्रमादकः। ब्रह्मचर्य यतिः शक्तो, रक्षितुं न परः पुनः॥३४० ॥ अर्थ - जो साधु स्त्रीवर्ग में सर्वत्र प्रमादरहित होता है और कभी उनका विश्वास नहीं करता, वही साधु जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करने में समर्थ हो सकता है, किन्तु जो इससे विपरीत प्रवृत्ति वाला है वह साधु ब्रह्मचर्यव्रत का अन्त-पर्यन्त निस्तार नहीं कर सकता ||३४० ॥ प्रश्न - अप्रमादी रहने का क्या भाव है और स्त्रीवर्ग से कौन-कौनसी स्त्रियों का ग्रहण होता है ? उत्तर - यहाँ स्त्रीवर्ग से बाला, कन्या, तरुणी, समवयस्का, वृद्धा, भिक्षुणी, तपस्विनी, सुरूपा, कुरूपा एवं गूंगी आदि सभी प्रकार की स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिए। उनमें अप्रमादी रहना चाहिए। अर्थात्
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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