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________________ मरणकण्डिका - ४७२ प्रमाणी-कुरुते भक्तो, यो योगी परमेष्ठिनः । तत्साक्षीकमसौ जातु, प्रत्याख्यानं न मुञ्चति ।। १७१९॥ अर्थ - जो योगी पंचपरमेष्ठी का सच्चा भक्त है और उन्हें प्रमाणभूत मानता है, वह कभी उनकी साक्षी में लिये हुए प्रत्याख्यान को अर्थात् प्रतिज्ञा को कभी नहीं छोड़ता है॥१७१९।। साक्षी-कृत्य पराभूता:, कुर्वतो परमेष्ठिनः। पुनः सद्यो महादोष, भूमिपाला इव स्फुटम् ।।१७२० ॥ अर्थ - जैसे राजा को साक्षी बनाकर फिर उनकी अवज्ञा करना मनुष्य को महादोष का भागी बनाता है, वैसे ही पंच परमेष्ठी की साक्षी में आहार-जलादि के त्याग की प्रतिज्ञा लेकर उस प्रतिज्ञा का तिरस्कार करना ही परमेष्ठियों की आसादना है। इस आसादना से उस साधु को तत्काल घोर पाप का बंध कराने वाला महादोष लगता है।।१७२० ॥ सङ्ग-तीर्थकराचार्य-श्रुताधिक-महर्द्धिकान् । पराभवति योगी च, स पराञ्चिकमञ्चति ।।१७२१॥ अर्थ - संघ, तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्याय एवं महान् ऋद्धिधारी मुनिराजों की आसादना या तिरस्कार करने वाला साधु पारंचिक नामक प्रायश्चित्त का भागी होता है। अर्थात् उस साधु की शुद्धि पारंचिक प्रायश्चित्त द्वारा ही होती है, अन्य से नहीं ॥१७२१॥ तिरस्कृता नृपाः सन्त:, साक्षित्वेऽस्य शरीरिणः । एकत्र ददते दुःखं, जिनेन्द्रा भष-कोटिषु ।।१७२२ ।। अर्थ - साक्षी बनाये गये उस राजा की आसादना या तिरस्कार से तो जीवों को राजा द्वारा दण्डित आदि होने का दुख केवल उसी एक भव में होता है, किन्तु जिनेन्द्रदेवादि की आसादना से अर्थात् उनकी साक्षी में ली हुई प्रतिज्ञा को भंग कर उनका तिरस्कार करने से कोटि-कोटि भवों में महान् दुख भोगना पड़ता है ।।१७२२ ।। मोक्षाभिलाषिण: साधोर्मरणं शरणं वरम्। प्रत्याख्यानस्य न त्यागो, जिन-सिद्धादि-साक्षिणः ॥१७२३ ॥ एकत्र कुरुते दोषं, मरणं न भवान्तरे। व्रत-भङ्गः पुनर्जातो, भवानां कोटि-कोटिषु ।।१७२४ ।। अर्थ - मोक्षाभिलाषी संयमी को मरण की शरण लेना श्रेष्ठ है किन्तु अरहन्त एवं सिद्धादि परमेष्ठियों की साक्षी करके लिये गये त्याग का भंग करना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि मरण एक भव का ही विनाश करता है उससे आगे के भवों का विनाश नहीं होता किन्तु व्रत का भंग कर दिया जाय तो कोटि-कोटि भवों में दोष होता है। अर्थात् अनन्त भवों तक दुर्गतिजन्य दुख भोगने पड़ते हैं ।।१७२३-२४॥ प्रत्याख्यानमनादाय, म्रियमाणस्य देहिनः। न तथा जायते दोष: प्रत्याख्यात्यजने यथा ।।१७२५ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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