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________________ मरणकण्डिका - ४७१ स्वयं पुराकृतं कर्म ममाद्य फलितं स्फुटम् । दोषो नैवान कस्यापि, मत्वा दुःखासिकां त्यज ॥१७१३॥ अर्थ - भो यते ! तुम इस अल्प से पीडाजन्य दुख को छोड़ दो और विचार करो कि मैंने स्वयं ने पूर्वभवों में ऐसे असाताकर्म का बन्ध किया था, उसके उदय में आज स्पष्ट रूप से यह दुख रूप फल मिल रहा है, इसमें अन्य किसी का दोष नहीं है ।।१७१३॥ अभूतपूर्वमन्येषामात्मनो यदि जायते। तदा दुःखासिका कर्तुं मानसे युज्यते तव ॥१७१४ ।। अवश्यमेव दातव्यं, काले न्यायेन यच्छतः । सर्वसाधारणं दण्डं, दुःखं कस्य मनीषिणः॥१७१५॥ अर्थ - भो मुने यदि यह दुख पूर्व में दूसरों को कभी नहीं हुआ हो केवल तुम्हें ही यह अभूतपूर्व दुख हो रहा हो तब तो तुम्हारा मन में इतना दुखी होना युक्त भी है, किन्तु वेदनाजन्य ये पीड़ाएँ अथवा ये दुख सर्वजीवों को भोगना एक सर्वसाधारण बात है। जैसे दण्ड या टैक्स या कर यथासमय अवश्यमेव देना ही न्याय है, उस कर को देते किस बुद्धिमान को दुख होगा ? वैसे ही पूर्वकृत कर्मों का फल सभी को भोगना सर्वसाधारण बात है, टैक्स देने के समान उसे भोगते समय किस बुद्धिमान को दुख होगा? अपितु नहीं होगा ।।१७१४-१७१५ ।। सर्व-साधारणं दुःखं, दुर्निवारमुपागतम्। सहमानो मुने ! माभूर्दुःखितस्त्वं भज स्मृतिम् ॥१७१६॥ ___ अर्थ - भो मुने ! कर्मोदय से प्राप्त यह दुख सर्व साधारण है और दुर्निवार है, अतः इसे भोगते हुए दुख मत करो। तुम शीघ्र ही अपने पद की अर्थात् अपने स्वरूप की स्मृति करो और धैर्य धारण करो ॥१७१६ ।। साक्षी-कृत्य गृहीतस्य, पञ्चापि परमेष्ठिनः। संयतस्य वरं मृत्युः, प्रत्याख्यानस्य भङ्गतः ।।१७१७ ॥ अर्थ - भो क्षपक ! पंच परमेष्ठी (तनिवासी देव और सर्व संघ) की साक्षी पूर्वक ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान को अर्थात् आहार-जल त्याग की प्रतिज्ञा को भंग करने की अपेक्षा तो तुम्हें मरण कर लेना अर्थात् तुम्हारा मरण हो जाना ही श्रेष्ठ है ||१७१७।। अप्रमाणयता तेन, न्यक्कृताः परमेष्ठिनः। कार्यान्निवर्तमानेन, साक्षी-कृत-नृपा इव ।।१७१८॥ अर्थ - जैसे राजा को साक्षी बना कर किये गये कार्य की प्रतिज्ञा में विसंवाद या आनाकानी करने वाला पुरुष राजा की अवज्ञा करने का दोषी होता है, वैसे ही पंच परमेष्ठियों की साक्षीपूर्वक-स्वीकार किये गये आहारजलादि के प्रत्याख्यान को अर्थात् प्रतिज्ञा को भंग करने वाला अरहन्तादि को प्रमाण न मानने से उनकी अवज्ञा का दोषी होता है|१७१८॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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