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यथा : (१) अर्ह - अधिकार : इस अधिकार में अह', लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि', अनियत विहार, परिणाम, उपधित्याग', श्रिति' और भावना" इन दश अधिकारों का समावेश है । ४. (२) सल्लेखना आदि अधिकार : इस अधिकार में ११ से लेकर १६ पर्यन्त अर्थात् छह अधिकारों का समावेश है। यथा - सल्लेखना ११, दिशा १२, क्षमण १३, अनुशिष्टि १४, परगणचर्या १५ और मार्गणा ।
५. (३) सुस्थितादि अधिकार इस अधिकार में निरूपण २०, पृच्छा २१, एकसंग्रह २२, आलोचना २३, गुण-दोष २४, अधिकारों का समावेश है।
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६. ( ४ ) निर्यापकादि अधिकार इस अधिकार में निर्यापक २७, प्रकाशन १८, हानि १९, प्रत्याख्यान ३०, क्षामण और क्षपण े २ इन छह अधिकारों का समावेश है।
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सुस्थित १७ उत्सर्पण, परीक्षा १९,
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शय्या और संस्तर २६ इन दस
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७. (५) अनुशिष्टि महाधिकार अनुशिष्टि नाम का यह ३३ आकार स्वयं में अत्यधिक विशाल है। यह श्लोक ७५१ से प्रारम्भ हो १५६८ पर अर्थात् ८१८ श्लोकों में पूर्ण हुआ है अतः इसे महाधिकार संज्ञा दी गई है । भक्तप्रत्याख्यान के अर्हादि ४० अधिकारों में १४वें अधिकार का नाम भी अनुशिष्टि अधिकार है जो मात्र ११२ श्लोक प्रमाण है। इस अधिकार से उसे भिन्न दर्शाने हेतु भी सम्भवतः उसे महाधिकार संज्ञा दी गई है। इस महाधिकार के प्रारम्भ में ही आचार्यश्री ने दो श्लोकों द्वारा इस अधिकार के प्रतिपाद्य विषय को सूचित कर दिया है। यथा
मिथ्यात्व - वमनं दृष्टिं, भावनां भक्तिमुत्तमाम् ।
रति भाष- नमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ॥ ७५४ ॥
यह श्लोक सूचना रूप है। मिध्यात्ववमन, सम्यक्त्व भावना, उत्तम भक्ति, पंच नमस्कार में रति और ज्ञानाभ्यास इन विषयों का वर्णन ५३ श्लोकों में किया गया है।
मुने ! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि-निग्रहम् ।
हृषीक - निर्जयं द्वेधा, तपोमार्गे कुरूद्यमम् ॥७५५ ॥
यह श्लोक भी सूचना रूप है। इसमें मात्र चार विषयों के विवेचन की सूचना दी गई है। इनमें पाँच महाव्रतों की रक्षा का वर्णन श्लोक ८०९ से १४२२ तक, कृषायनिग्रह एवं इन्द्रियविजय का वर्णन श्लोक १४२३ से १५१९ तक और तप का वर्णन १५२० से १५४७ तक किया गया I
इस महाधिकार में अनुमानत: चालीस कथाएँ दी गई हैं। इस अधिकार का अन्त निद्रा पर विजय प्राप्त करने के उपाय बता कर एवं तपस्या में संलग्न होने की प्रेरणा पूर्वक हुआ है।
८. (६) सारणादि - अधिकार : इस अधिकार में सारणा ३४, कवच ५ और समता २६ इन तीन अधिकारों का समावेश किया गया है।