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________________ ९. (७) ध्यानादि अधिकार : इस अधिकार में ध्यान ७, लेश्या३८, फल२९ एवं आराधक अंगत्याग इन चार अधिकारों का समावेश किया गया है। १०-११. इसके पश्चात् अवीचार भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमनमरण तथा बालपण्डितमरण अधिकार कहे गये हैं। इनमें अधिकारगत निरुद्ध, निरुद्धतर और निरुद्धतम इन तीन भेदों के, इंगिनीमरण के, प्रायोपगमनमरण तथा बालपण्डितमरण के स्वरूप का तथा इनके स्वामी आदि का विवेचन ७६ श्लोकों में किया गया है। पश्चात् उपसर्गादि के निमित्त से तत्काल आराधनापूर्वक पण्डितमरण करने वाले महापुरुषों की चार कथाएँ दी गई हैं। इसके पश्चात् १२वें अधिकार में ८० श्लोकों द्वारा पण्डितपण्डित मरण का विवेचन किया गया है। पश्चात् आराधना का फल और ग्रन्थकार की लघुता का निर्देश करते हुए मरणकण्डिका ग्रन्थ पूर्ण हो गया है। सल्लेखना की कठिन साधना के साथ-साथ इस वृहद्काय ग्रन्थ के लेखन की शक्ति परम पूज्य, परम श्रद्धेय अहर्निश-स्मरणीय सर्व पूर्वाचार्यों के मंगल शुभाशीर्वाद से ही प्राप्त हो सकी है। इन परमोपकारी, गुरुजनों की आभारी मैं आप सबके पावन चरण-कमलों में कृतिकर्म पूर्वक शतश: नमस्कार करती हूँ। वर्तमान पट्टाधीश निर्यापकाचार्य गुरुदेव परम पूज्य, परम श्रद्धेय, प्रातः स्मरणीय आचार्य १०८ श्री वर्धमान गर जी महाराज का मगर: गुमाशीर्वाद ही इस लेखन का महान् सम्बल रहा है। आपके अविस्मरणीय उपकारों के प्रति मेरा अन्तस् अत्यन्त आभारी है। जर्जर नौका को पार कर किनारे तक पहुँचाने की कृपाकांक्षी मैं आपके पावन चरण-कमलों में कृतिकर्म पूर्वक शतश: नमोऽस्तु करती हुई आप के प्रति कृतज्ञ हूँ। परम पूज्य विदुषीरत्न आर्यिका १०५ श्री जिनमती माता जी की कृति के आधार पर ही मैं यह महान् कार्य पूर्ण कर सकी हूँ अत: उनके प्रति मेरा मन आभारी है। आपके पावन चरणों में बार-बार वन्दामि। आर्यिका १०५ श्री प्रशान्तमती माताजी ने मेरी लिखी पाण्डुलिपि संलग्नता पूर्वक देखी है। उनकी यह सम्यग्ज्ञान की रति एवं रत्नत्रय की निर्मलता उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती रहे, यही मेरी हार्दिक मंगल भावना है। जिनवाणी के परमभक्त और निर्लोभी डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी, परम सहयोगी प्रतिष्ठाचार्य श्री हँसमुख जी एवं अन्य भी सहयोगी जनों के प्रति मेरा मन आभारी है। आप सब निर्मल ज्ञान प्राप्त कर शीघ्र ही इस संसारभ्रमण से छूटें, यही मेरी हार्दिक मंगल भावना है। ॐ शान्ति । भद्रं भूयात्। आर्यिका विशुद्धमती वि. सं. २०५८ गुरु पूर्णिमा, ५.७.२००१
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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