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________________ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, आर्षमार्गपोषक परम पू. १०५ आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी (संक्षिप्त जीवनवृत्त) गेहुँआ वर्ण, मझोला कद, अनतिस्थूल शरीर, चौड़ा ललाट, भीतर तक झांकती सी ऐनक धारण की हुई आँखें, हितमितप्रिय स्पष्ट बोल, संयमित सधी चाल और सौम्य मुखमुद्रा-बस, यही है उनका अंगन्यास । नंगे पाँच, लुंचित सिर, धवल शाटिका, मयूरपिच्छिका-बस, यही है उनका वेषविन्यास। विषयाशाविरक्त, ज्ञानध्यान तप जप में सदा निरत, करुणासागर, परदुःख कातर, प्रवचनपटु, निस्पृह, समता-विनय-धैर्य और सहिष्णुता की साकारमूर्ति, भद्रपरिणामी, साहित्य-सृजनरत, साधना में वज्र से भी कठोर, वात्सल्य में नवनीत से भी मृदु, आगमनिष्ठ, गुरुभक्तिपरायण, प्रभावनाप्रिय-बस, यही है उनका अन्तर आभास । जूली और जया, जानकी और जेबुन्निसा सबके जन्मों का लेखा-जोखा नगरपालिकायें रखती हैं पर कुछ ऐसी भी हैं जिनके जन्म का लेखाजोखा राष्ट्र, समाज और जातियों के इतिहास स्नेह और श्रद्धा से अपने अंक में सुरक्षित रखते हैं। वि. सं. १९८६ की चैत्र शुक्ला तृतीया को रीठी (जबलपुर, म. प्र.) में जन्मी वह बाला सुमित्रा भी ऐसी ही रही है - जो आज है आर्यिका विशुद्धमती माताजी! इस शताब्दी के प्रसिद्ध सन्त पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णी के निकट सम्पर्क से संस्कारित धार्मिक गोलापूर्व परिवार में सद्गृहस्थ पिता श्री लक्ष्मणलालजी सिंघई एवं भाता सौ, मथुराबाई की पाँचवी सन्तान के रूप में सुमित्राजी का पालन-पोषण हुआ। चूंटी में ही दयाधर्म और सदाचार के संस्कार मिले। फिर थोड़ी पाठशाला की शिक्षा, नस; सब कुछ सामान्य, विलक्षणता का कहीं कोई चिह्न नहीं। आयु के पन्द्रह वर्ष बीततेबीतते पास के ही गाँव बाकल में एक घर की वधू बनकर सुमित्राजी ने पिता का घर छोड़ा। इतने सामान्य जीवन को लखकर तब कैसे कोई अनुमान कर लेता कि यह बालिका एक दिन ठोस आगमज्ञान प्राप्त करके स्व-पर कल्याण के पथ पर आरूढ़ हो स्वीपर्याय का उत्कृष्ट पद प्राप्त कर लेगी। सच है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है। चन्द्रमा एवं सूर्य को राहु और केतु नामक ग्रह विशेष से पीड़ा, सर्प तथा हाथी को भी मनुष्यों के द्वारा बन्धन और विद्वद्जन की दरिद्रता देखकर अनुमान लगाया जाता है कि नियति बलवान है और फिर काल ! काल तो महाक्रूर है ! 'अपने मन कछु और है विधना के कछु और' दैव दुर्विपाक से सुमित्राजी के विवाह के कुछ ही समय बाद उन्हें सदा के लिए मातृ-पितृ वियोग हुआ और विवाह के डेढ़ वर्ष के भीतर ही कन्या-जीवन के लिए अभिशाप स्वरूप वैधव्य ने आपको आ घेरा। अब तो सुमित्राजी के सम्मुख समस्याओं से घिरा सुदीर्घ जीवन था । इष्टनियोग (पति और माता-पिता) से उत्पन्न हुई असहाय स्थिति बड़ी दारुण थी। किसके सहारे जीवन-यात्रा व्यतीत होगी? किस प्रकार निश्चित जीवन मिल सकेगा? अवशिष्ट दीर्घजीवन का निर्वाह किस विधि होगा? इत्यादि नाना प्रकार की विकल्प लतरियाँ मानस को मथने लगीं। भविष्य प्रकाशविहीन प्रतीत होने लगा। संसार में शीलवती स्त्रियाँ धैर्यशालिनी होती हैं,
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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