SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका -८५ अर्थ - अनशन, अवभौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, काय-क्लेश और विविक्त-शय्यासन रूप बाह्य तप छह प्रकार का है ।।२१३ ।। अनशन तप के भेद और उनकी अवधि सार्वकालिकमन्यचा, हेनाशनमीरितम् । प्रथमं मृत्युकालेऽन्यद्वर्तमानस्य कथ्यते ॥२१४ ।। एक द्वि त्रि चतुः पञ्च, षट् सप्लाष्ट-नवादयः। उपवासा: जिनैस्तत्र, षण्मासावधयो मताः ॥२१५॥ अर्थ - सार्वकालिक और असार्वकालिक के भेद से अनशन तप दो प्रकार का है। इनमें से पहला सार्वकालिक अनशन मरण-समय में होता है। दूसरा असार्वकालिक अनशन वर्तमान में अर्थात् दीक्षा दिन से सार्वकालिक अनशनग्रहण के पूर्व समय तक होता है ।।२१४ || एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ और नव आदि उपवास करना असार्वकालिक अनशन है। इन उपवासों को निरन्तर करने की उत्कृष्ट अवधि छह माह की है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।२१५ ।। अनशन तप से लाभ बहुदोषाकरे ग्रामे, प्रवेशो विनिवारितः । संयमो वर्धितः पूतः, कुर्वतानशनं तपः ।।२१६ ॥ अर्थ - अनशन तप अर्थात् उपवास करने से बहुत दोर्षों का आकर ऐसे ग्राम आदि का प्रवेश रुक जाता है, संयम की वृद्धि होती है और आत्मा में पवित्रता आ जाती है।।२१६ ॥ प्रश्न - ग्राम आदि के प्रवेश को दोषों का खजाना क्यों कहा गया है? उत्तर - आहारार्थ ग्राम आदि में जाने से समय बहुत लग जाता है, राग-द्वेष के निमित्तभूत नाना प्रकार के दृश्य दिखाई देते हैं, विविध जनसम्पर्क होने से विविध प्रकार के ही संकल्प-विकल्पों की उत्पत्ति होने लगती है। अज्ञानी या दुष्ट जनों द्वारा बोले हुए अपशब्द या गाली आदि को सुनकर कषायवृद्धि होने के अवसर प्राप्त हो जाते हैं तथा समिति आदि का पालन करते हुए भी प्रमाद आदि के कारण असंयम भी हो जाता है। इस कारण ग्राम आदि के प्रवेश को दोषों का खजाना कहा गया है। अवमौदर्यतप के कारणभूत आहार का प्रमाण आहारस्तृप्तये पुंसां, द्वात्रिंशत्कवाला जिनैः। अष्टाविंशतिरादिष्टा, योषितः प्रकृतिस्थितः ।।२१७॥ अर्थ - पुरुष का स्वाभाविक आहार बत्तीस ग्रास प्रमाण और महिलाओं का स्वाभाविक आहार अट्ठाईस ग्रास प्रमाण है। इतने आहार से ही इनकी तृप्ति हो जाती है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।।२१७ ॥ प्रश्न - एक ग्रास का क्या प्रमाण है? और यह प्रमाण यहाँ क्यों कहाँ गया है?
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy