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________________ मरणकण्डिका - १८१ आराधनागतं क्षेम, क्षपकस्य समीयुषः । दिव्येन नि:प्रमादोऽसौ, निमित्तेन परीक्षते ॥५३९ ॥ इति परीक्षणम् ॥१९ ।। अर्थ - आराधना हेतु आगत क्षपक की आराधना के समय क्षेम अर्थात् सुख-शान्ति रहेगी या नहीं? इस विषय की परीक्षा, निमित्तज्ञान एवं दिव्यज्ञान द्वारा आचार्य निःप्रमादी होकर करते हैं॥५३९ ।। प्रश्न - आचार्य यह परीक्षा क्यों और कैसे करते हैं? उत्तर - आचार्यदेव क्षपक के हितार्थ और धर्म की वृद्धि आदि के लिए सर्वप्रथम क्षपक की परीक्षा करके ही उसे स्वीकार करते हैं। यथा सर्वप्रथम क्षपक के आहारजन्य परिणामों की परीक्षा करना अति आवश्यक है क्योंकि अन्न-जल का त्याग कर देना अति दुःसाध्य कार्य है। यदि क्षपक का मानसिक बल कमजोर होगा तो वह भूख आदि को असहय वेदना होने पर रोने-चिल्लाने लगे, भाग जावे या असमय में और अयोग्य आहार आदि कर ले तो धर्म और गण की निन्दा के साथ-साथ क्षपक का भारी अहित होगा। इस प्रकार परीक्षा अधिकार पूर्ण हुआ ।।१९।। २०. पडिलेहा अर्थात् निरूपण अधिकार तं गृहीते मार्गवेदी गणं स्वं, राज्यं क्षेत्रं भूमिपालं निरूप्य । साधु सूरे गृह्णतो नि:परीक्षं, चित्रा दोषा दुर्निवारा भवन्ति ।।५४०॥ इति निरूपणम्॥ अर्थ - रत्नत्रय मार्ग के ज्ञाता आचार्य स्वयं अपना सामर्थ्य, गण का भाव, राज्य, क्षेत्र और राजा आदि के विषय में विचार करके ही समाधि हेतु आये हुए क्षपक को ग्रहण करते हैं। यदि आचार्य इन सबकी परीक्षा किये बिना ही समाधि हेतु साधु को ग्रहण कर लेते हैं तो नाना-प्रकार के दुर्निवार दोष आते हैं ।।५४०॥ प्रश्न - आचार्यदेव इन सबके विषय में इतना विचार क्यों और किस प्रकार से करते हैं ? उत्तर - मनुष्यों के कोई भी शुभाशुभ कार्य शुभाशुभ संकेत दिये बिना नहीं होते। आचार्यदेव महाज्ञानी होते हैं। वे रत्नत्रय के मार्ग के साथ-साथ अनेक प्रकार के दिव्यों एवं निमित्तों के भी ज्ञाता होते हैं। दूसरे की समाधि सुचारु रीत्या सम्पन्न करा देना यह कोई सहजसाध्य कार्य नहीं है, अत: सर्वप्रथम आचार्य स्वयं का आत्मबल, परोपकार के प्रति स्वयं का मानसिक उत्साह, अपने गण पर स्वयं का वर्चस्व आदि तौलते हैं। पश्चात् यह देखते हैं कि इस समाधिकार्य से राज्यादि का शुभ होगा या नहीं ? यदि शुभ होने के लक्षण न हों अथवा राज्य धर्मद्वेषी हो तो आचार्य क्षपक को लेकर अन्य राज्य या अन्य नगर या अन्य ग्राम में चले जाते हैं। परीक्षा न करने पर यदि राज्य आदि में समाधि के समय उत्पात आदि हुआ तो आचार्य और क्षपक दोनों को कष्ट उठाना पड़ेगा। किसी देव के उपदेश या संकेत से, शुभाशुभ स्वप्नों से या शुभाशुभ निमित्तों से गण का, स्वयं का या क्षपक का अनिष्ट देखते हैं तो समाधि जैसे उत्तम कार्य का प्रारम्भ नहीं करते। जो आचार्य
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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