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________________ मरणकण्डिका - ४४६ * श्रीदत्तमुनिकी कथा * __ इलावर्धन नगरीके राजाका नाम जितशत्रु था। उनकी इला नामकी रानी थी जिससे श्रीदत्त नामक पुत्रने जन्म लिया। श्रीदत्तकुमार का विवाह अयोध्याके राजा अंशुमान की पुत्री अंशुमतीसे हुआ था। अंशुमतीने एक तोता पाल रखा था। चौपड़ आदि खेलते हुए जब राजा विजयी होता तब तो तोता एक रेखा खींचता और जब रानी जीतती थी तब वह तोता चालाकी से दो रेखाएं खींच देता था। उसकी यह शरारत दो-चार बार तो राजाने सहन करली आखिर उसे गुस्सा आ गया और उसने तोतेकी गरदन मरोड़ दी। तोता मरकर व्यन्तर देव हुआ | श्रीदत्त राजाको एक दिन बादलकी टुकड़ी को छिन्न-भिन्न होते देखकर वैराग्य हो गया और उन्होंने संसारपरिभ्रमणका अन्त करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण करली। अनेक प्रकारके कठोर तपश्चरण करते हुए और अनेक देशोंमें विहार करते हुए श्रीदत्त मुनिराज इलावर्धन नगरी आये और नगरके बाहर कायोत्सर्ग ध्यानसे खड़े हो गये । ठण्ड कड़ाके की पड़ रही थी। उसी समय शुकचर व्यन्तर देवने पूर्व वैरके कारण मुनिराज पर घोर उपसर्ग प्रारम्भ कर दिया। वैसे ही ठण्डका समय था और उस देवने शरीरको छिन्न-भिन्न कर देनेवाली खुब ठण्डी हवा चलाई, पानी बरसाया तथा खूब ओले गिराये । पर मुनिराजने अपने धैर्यरूपी गर्भगृहमें बैठकर तथा समता रूपी कपाट बन्द करके संयमादि गुणरत्नोंको उस जलके प्रवाहमें नहीं बहने दिया, उसके फलस्वरूप वे उसी समय केवलज्ञानको प्राप्त करते हुए मोक्ष पधारे। मारुतं गृष्मकं तापं, वह्नि-तप्तं शिला-तलम् । सोढ्वा वृषभसमोऽपि, स्वार्थ प्रापयामः ।।९६९७ .. अर्थ - अति उष्ण वायु, अत्यन्त गर्म आताप और अग्नि से तप्तायमान शिलातल की उष्ण बाधाओं को सहन करके अनाकुलभाव से आराधनाओं की आराधना करते हुए वृषभसेन महामुनिराज उत्तमार्थ अर्थात् मोक्षपुरी को प्राप्त हुए ।।१६२७ ।। * वृषभसेन मुनिकी कथा * उज्जैनके राजा प्रद्योत एक दिन हाथी पर बैठकर हाथी पकड़नेके लिये जंगल की ओर जा रहे थे। मार्ग में हाथी उन्मत्त हो उठा और उन्हें भगाकर बहुत दूर लेगया। राजा प्रद्योत एक वृक्षकी डाल पकड़कर ज्यों-त्यों बचे। प्याससे व्याकुल चलते हुए वे खेट ग्रामके कुए पर पहुंचे। उसी समय जल भरनेके निमित्त आई हुई जिनपाल की पुत्री जिनदत्ताने उन्हें जल पिलाया और पितासे जाकर सब समाचार कह दिये। "ये कोई महापुरुष हैं" ऐसा विचारकर जिनपाल उन्हें आदरसत्कार पूर्वक अपने घर ले गया और जिनदत्ताके साथ उसकी शादी कर दी। जिनदत्ताको पटरानीके पदपर नियुक्त कर राजा सुखसे रहने लगा। समय पाकर उन दोनों के वृषभसेन नामका पुत्र हुआ। वृषभसेन जब आठ वर्षके थे तब राजा प्रद्योत पुत्रको राज्य-भार देकर दीक्षा लेना चाहते थे। पुत्रने दीक्षा लेनेका कारण पूछा। पिताने कहा-बेटा ! राज्य का भोग भोगते हुए सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती, उसके लिये तपश्चरण आवश्यक है। सच्चे सुखकी बात सुनकर बहुत समझाए जानेपर भी पुत्रने इन्द्रिय-सुखोंके कारणभूत राज्यको ग्रहण नहीं किया और पिताके साथ ही जिनदीक्षा धारण कर ली। वृषभसेन मुनिराज तपस्या करते एवं अकेले ही अनेक देशोंमें घूमते हुए कौशाम्बी नगरीमें आये और छोटी सी पहाड़ी पर ठहर गये। गर्मीका
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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