SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका- ३९८ अर्थ - जैसे धैर्यशाली मनुष्य का शस्त्र ही शत्रु का विघात करता है, वैसे ही कषाय एवं इन्द्रिय विजेता साधु का ही ज्ञान, दोषों का अर्थात् कर्मों का क्षय करने में समर्थ होता है । १४०४ ॥ दोषाय जायते ज्ञानं, कषायेन्द्रिय- दूषितम् । आहारो हरते किं न, जीवितं विष मिश्रितम् ॥ १४०५ ॥ अर्थ - कषाय और इन्द्रिय-विषय रूप परिणामों के दोष से ज्ञान भी साधुओं में दोष ही उत्पन्न करता है । अर्थात् दूषित ज्ञान कर्मबंध का कारण है। सो ठीक ही है, क्या विषमिश्रित आहार जीवन का नाश नहीं करता अपितु करता ही है ।। १४०५ ॥ विदधाति गुणं ज्ञानं, कषायेन्द्रिय वर्जितम् । वपुर्योग्यं करोत्यन्नं, बल-वर्णादि- सुन्दरम् ।।१४०६ ॥ अर्थ - जैसे शरीर के योग्य विष रहित उत्तम आहार बल, रूप, तेज एवं लावण्यादि को बढ़ाता है, वैसे ही कषाय एवं इन्द्रिय विषय रूप परिणामों से रहित ज्ञान साधुओं के गुणों को वृद्धिंगत करता है ॥ १४०६ ।। कषायेन्द्रिय-दोषेण, ज्ञानं नाशयते गुणम् । शस्त्रमात्म-विनाशाय, किन्न भीरु- करस्थितम् ।। १४०७ ।। अर्थ - कषाय एवं इन्द्रिय रूप परिणामों के दोष से ज्ञान साधुओं के गुणों को नष्ट कर देता है। ठीक ही है, कायर पुरुष के हाथ में आया हुआ शस्त्र क्या उसके ही वध में निमित्त नहीं होता ? अपितु होता ही है || १४०७ ॥ कषायेन्द्रिय- दोषार्तः, शास्त्रज्ञोऽप्यवमन्यते । किं प्रेत: शस्त्र - हस्तोऽपि न खगैः परिभूयते ॥ १४०८ ॥ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियों के दोष से भली प्रकार शास्त्रों का ज्ञाता विद्वान् साधु भी अपमान का पात्र होता है। ठीक है, हाथ में शस्त्र होते हुए भी मृत योद्धा के शव को क्या गृद्ध आदि पक्षी नहीं खा जाते ? अपितु खा ही जाते हैं ||१४०८ ॥ वत्ते नाक्ष- कषायाः, श्रुतज्ञोऽपि प्रवर्तते । उड्डीयते कुत: पक्षी, लून-पक्षः कदाचन ॥। १४०९ ।। अर्थ - जैसे कटे हुए पंख वाला पक्षी इच्छा करते हुए भी उड़ नहीं सकता, वैसे ही इन्द्रियविषयों एवं कषायों के वशवर्ती हुआ बहुश्रुतज्ञ विद्वान् भी चारित्र में उद्यम नहीं कर पाता || १४०९ ॥ स्रंसते बह्वपि ज्ञानं, कषायेन्द्रिय- दूषितम् । सशर्करमपि क्षीरं, सविषं मंक्षु नश्यति ॥ १४१० ॥ अर्थ- जैसे शर्करा या मिश्री मिश्रित भी दूध विष के सम्पर्क से शीघ्र ही नष्ट अर्थात् विषैला हो जाता है, वैसे ही कषायों एवं इन्द्रियों के योग से विशाल ज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।। १४९० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy