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मरणकण्डिका-३९७
कषायाक्ष-पिशाचेन, पिशाची-क्रियते जनः ।
जनानां प्रेक्षणीभतस्तीव-पाप-क्रियोद्यतः ॥१३९९ ।। अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी पिशाच मनुष्य को पिशाचरूप ही कर देता है, पिशाच तो अदृश्य रहकर कुचेष्टा कराता है किन्तु कषाय और इन्द्रियरूपी पिशाच अन्य मनुष्यों के देखने योग्य तीव्र पापमयी कुचेष्टाएँ कराते हैं ॥१३९९॥
कुलवान संयमी साधुओं का कर्तव्य संयतस्य कुलीनस्य, योगिनो मरणं वरम् ।
लोकद्वय-सुख-ध्वंसि, न कषायाक्ष-पोषणम् ।।१४०० ।। अर्थ - संयमी और कुलीन साधु का मर जाना श्रेष्ठ है किन्तु दीक्षित होकर इस लोक और परलोक के सुख का नाश करने वाले कषायों एवं इन्द्रियों का पोषण उसे कभी नहीं करना चाहिए ।।१४०० ॥
निन्द्यते संयतः सर्वैः, कषायाक्ष-वशंगतः।
सन्नद्धो धृत-कोदण्डो, नश्यन्निय रणाङ्गणे॥१४०१॥ अर्थ - जैसे धनुष-बाण हाथ में लेकर युद्ध के लिए तैयार हुआ कोई योद्धा यदि युद्धक्षेत्र से भागता है तो वह सभी के द्वारा निन्दा का पात्र होता है, वैसे ही दीक्षित साधु यदि कषायों एवं इन्द्रियों के आधीन होता है तो वह भी सभी के द्वारा निन्दनीय होता है ।।१४०१।।
कषायाक्ष-वश-स्थायी, दूष्यते कैर्न संयतः।
याचमानो यथा भिक्षा, भूषितो मुकुटादिभिः ।।१४०२ ।। अर्थ - जैसे मुकुट, हार एवं कुण्डलादि आभूषणों से सुशोभित कोई भिक्षार्थ भ्रमण करता है तो हँसी एवं निन्दा का पात्र होता है, वैसे ही दीक्षित होकर कषायों तथा इन्द्रियों के वशीभूत होने वाला साधु हँसी का पात्र होता है ।।१४०२॥
सर्वाङ्गीण-मलालीढो, ननो मुण्डो महातपाः।
जायते सकषायाक्षश्चित्र-श्रमण-सन्निभः ।।१४०३ ।। अर्थ - अस्नान मूलगुण की पालना के कारण जो सर्वांग में मललिप्त है, वस्त्रमात्र का त्याग होने से जो नग्न है, केशलोच करने के कारण मुण्ड है और अनशनादितप करने के कारण महातपस्वी है किन्तु यदि वह कषाय एवं इन्द्रिय-विषयजन्य परिणामों से युक्त है तो वह साधु चित्र-अंकित श्रमण सदृश है अर्थात् श्रमणरूप का धारी होने पर भी श्रमण नहीं है॥१४०३॥
कषाय एवं इन्द्रिय विजय से लाभ ज्ञानदोषविनाशाय, कषायेन्द्रिय-निर्जयः। शस्त्रं शत्रु-विघाताय, जायते सत्व-सम्भवे ॥१४०४॥