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________________ परणकण्डिका - ३२३ उत्तर - यह प्रेरणा मुख्यतः साधु को दी गई है। उसे चिन्तन करना चाहिए कि मैंने यह सर्वोत्कृष्ट द्रत धारण किया है। इसमें मेरे द्वारा कोई दोष तो नहीं लग रहा? मेरी प्रवृत्ति आगमानुकूल है या नहीं? जनसमुदाय में मेरा अपवाद तो नहीं हो रहा? मेरा अपमान ही इस उत्तम साधु पद का अपमान है, इत्यादि प्रकार से जो चिन्तन करता है, और जो लज्जावान् है, वही अपने ब्रह्मचर्यव्रत को अखण्ड रख सकता है। किन्तु जिसे लोकलाज की चिन्ता नहीं, शर्म नहीं एवं जिसे धर्म की अप्रभावना का भय नहीं वह स्वच्छन्द आचरण कर अपने ब्रह्मचर्य में शिथिल होता है। न पश्यत्यङ्गना-रूपं, ग्रीष्मार्कमिव यश्चिरम् । क्षिप्रं संहरते दृष्टिं, तस्य ब्रह्मव्रतं स्थिरम् ॥११५९ ।। जय .. जैसे मनातु में घः सूर्य को कोई स्थिर दृष्टि से देर तक नहीं देख सकता (और कदाचित् देख भी ले तो तत्काल वहाँ से दृष्टि हटा लेता है) उसी प्रकार जो महापुरुष स्त्रियों के रूप को स्थिर दृष्टि से चिरकाल तक नहीं देखता, अर्थात् यदि कदाचित् दृष्टि चली जाय, तो तत्काल उसे संकोच लेता है, वहीं अपने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रख सकता है ।।११५९॥ गन्धे रूपे रसे स्पर्श, शब्दे स्त्रीणां न सज्जति। जातु यस्य मनस्तस्य, ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ।।११६० ।। अर्थ - जिस पुरुष का मन स्त्रियों के मनोहर गन्ध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द में कभी आकर्षित नहीं होता, उसी का ब्रह्मचर्य व्रत अखण्डित रहता है ।।११६० ।। स्त्री-दोषों के कथन का उपसंहार द्विपमिव हरिकान्ता मञ्ज मीनं बकीव, भुजगमिव मयूरी मूषिकं वा विडाली। गिलति निकटवृत्ति: संयतं निर्दया स्त्री, निकटमिति तदीयं सर्वदा वर्जनीयम् ॥११६१ ।। अर्थ - जिस प्रकार समीप में आये हुए हाथी को सिंहनी खा जाती है, समीप आये हुए मत्स्य को बगुली शीघ्र ही खा जाती है, मयूरी सर्प को मार डालती है एवं बिल्ली चूहे को खा जाती है, उसी प्रकार निर्दय हृदय कुशील स्त्री यदि संयत मुनि के समीप आ जावे तो वह उनके संयम को नष्ट कर डालती है, अत: स्त्री की निकटता सदैव ही त्याज्य है। दूर से ही छोड़ने योग्य है।।११६१ ।। प्रथयति भव-मार्ग मुक्ति-मार्ग वृणक्ति, दवयति शुभ-बुद्धिं पाप-बुद्धिं विधत्ते। जनर्यात जन-जल्पं श्लोक-वृक्षं लुनीते, वितरति किमु कष्टं सङ्गतिर्नाङ्गनानाम् ।।११६२॥ इति स्त्री-संसर्ग-दोषाः ।। अर्थ - स्त्रियों की संगति संसार-मार्ग को विस्तृत करती है एवं मुक्तिमार्ग को नष्ट करती है, पुण्यरूप धर्मबुद्धि को जला देती है तथा पापरूप अधर्मबुद्धि को उत्पन्न करती है। जनापवाद को उत्पन्न करती है और
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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