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________________ मरणकण्डिका - ३२४ प्रशंसारूप वृक्ष को काट डालती है। अहो ! स्त्री की यह संगति क्या-क्या कष्ट नहीं देती ? सभी कष्ट देती है।।११६२॥ इस प्रकार स्त्री-संसर्ग-दोष वर्णन समान । महाव्रतों के उपदेश के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ महाव्रत का विस्तार पूर्वक उपदेश देते हुए निर्यापकाचार्य कह रहे हैं कि - यदि ते जायते बुद्धिर्लोक-द्वितय गथुमे । उद्योग: पञ्चधा कार्य:, स्त्री-वैराग्ये तदा त्वया ॥११६३॥ अर्थ - हे क्षपक ! इस लोक एवं परलोक में तुम्हारे परिणाम यदि मैथुन-सेवन के बन जाएँ तो पाँच प्रकार के स्त्री-वैराग्य में मन को लगाओ। अर्थात् स्त्रीकृत दोष, मैथुन के दोष, स्त्रीसंसर्ग दोष, शरीरगत अशुचिता एवं वृद्धसेवा का चिन्तन करो, जिससे आपके अति अशुभ परिणाम नष्ट हो जायेंगे ।।११६३ ॥ प्रश्न - स्त्रीवैराग्य के लिए कौनसे पाँच विषयों का चिन्तन आवश्यक है और क्यों ? उत्तर - ब्रह्मचर्यव्रत का अखण्ड एवं निर्दोषरीत्या पालन करने हेतु विस्तृत उपदेश देते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि - हे क्षपक ! यदि तुम्हारे मन में कहीं स्त्रीभोगजन्य आसक्ति के संस्कार पड़े हों, उनके प्रति रागभाव उत्पन्न हो रहा हो तो तुम अपनी कामवासना के शमन हेत सर्व प्रथम जो काम अति-निन्दनीय है उसके दोषों का चिन्तन करो। पश्चात् जो दोषों का भण्डार है ऐसी स्त्री के दोषों का चिन्तन करो। पश्चात् जिस शरीर से भोगना है और जिस शरीर को भोगना है, वे दोनों कितने वीभत्स हैं, इस प्रकार शरीरगत दोषों का चिन्तन करो। पश्चात् वृद्धसेवा का चिन्तन करो कि जो साधु शीलवान् गुरुजनों की सेवा करता है वही ब्रह्मचर्य व्रत को अखण्ड रखने में समर्थ हो सकता है क्योंकि शिथिलशील वालों की संगति से ब्रह्मचर्य व्रत में शिथिलता आने की संभावना रहती है। पश्चात् स्त्री-संसर्ग में क्या-कैसे दोष हैं, इस विषय का चिन्तन करो। वैराग्यपरक इन पाँचों विषयों का चिन्तन करते रहने से ब्रह्मचर्य व्रत में सदा दृढ़ता बनी रहेगी। लिप्यते वर्तमानोऽपि, विषयेषु न तैर्यतिः। पद्मजातं जले वृद्धं, जातु किं लिप्यते जलैः ॥११६४ ।। अर्थ - जैसे जल में ही उत्पन्न हुआ और जल में ही वृद्धिंगत हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही विषयों के मध्य रहता हुआ भी साधु, वैराग्यपरक कामदोषादि इन पाँच विषयों का चिन्तन करता है तो उन विषयों से लिप्त नहीं होता॥११६४॥ विषयैर्विष्टपस्थस्य, चित्तमस्पर्शनं यतेः। सागरं गाहमानस्य, सलिलैरिव जायते ॥११६५।। अर्थ - जैसे समुद्र में अवगाहन करके भी समुद्र के जल से शरीर का अलिप्त रहना आश्चर्यकारी है, वैसे ही विषय रूपी समुद्र के मध्य रह कर विषयरूपी जल से चित्त का अलिप्त रहना अर्थात् विषयों में चित्त का न जाना महान् आश्चर्यकारी है।।११६५ ।। न दोष-श्वापदे भीमे, वञ्चना-गहने यतिः । नश्यति स्त्री-वनेऽलीक-पादपेऽशुचिता-तृणे ||११६६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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