SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - २२२ प्रश्न- देश एवं नगर की शुभाशुभ वार्ताओं के निरीक्षण का क्या प्रयोजन है ? उत्तर - प्रयोजन यह है कि जिस देश एवं नगर में क्षपक समाधिमरण कर रहा है उन क्षेत्रों के भलेबुरे समाचारों का निरीक्षण करते रहना कि समाधि में कोई बाधा आने का खतरा तो नहीं है। अर्थ - स्वसमय और पर समयरूप आगमज्ञान में चतुर चार मुनिजन दर्शनार्थ आगत भव्य जीवों को आक्षेपणी आदि चारों कथाओं का उपदेश देते हैं, किन्तु वे वसतिका से इतनी दूर जाकर उपदेश देते हैं कि जिससे क्षपक को उनके शब्द सुनाई न दें। यदि उपदेश का क्षेत्र समीप हो तो वे धीरे-धीरे उपदेश देते हैं ॥ ६९७ ॥ चत्वारो वादिनोऽक्षोभ्याः, सर्वशास्त्र - विशारदाः । धर्मदेशन - रक्षार्थं, विचरन्ति समन्ततः ॥ ६९८ ॥ बहिर्वदन्ति चत्वारः, स्व- परागम ~ कोविदाः । अनन्तः शब्दपातं ते, जनानां निखिलाः कथाः ।।६९७ ।। अर्थ सर्व शास्त्रों में निपुण, वाद-विवाद करने में कुशल और किसी भी परिस्थिति में उत्तेजित नहीं होने वाले ऐसे चार मुनि धर्मकथा करने वालों की रक्षा के लिए धर्मोपदेश-मण्डप में विचरण करते हैं । अर्थात् धर्मकथा में कोई विवाद यदि कोई विवाद खड़ा कर दे तो वे उसको तत्काल उत्तर देने में तत्पर रहते हैं ।। ६९८ ॥ एवमेकाग्र चेतस्का:, कर्मनिर्जरणोद्यताः । निर्यापका महाभागाः, सर्वे निर्वापयान्ति तम् ॥ ६९९ ।। - अर्थ कर्मनिर्जरण में उद्यत एकाग्रचित्त वे सभी अड़तालीस महाभाग निर्यापक उस क्षपक को संसारबन्धन से निकालने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।। ६९९ ॥ अड़तालीस से हीन-हीन निर्यापक भी ग्राह्य हैं कालानुसारतो ग्राह्याश्चत्वारिंशच्चतुर्युताः । भरतैरावतक्षेत्र - भाविनो मुनिपुङ्गवाः ।। ७०० ॥ अर्थ - पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में जब जैसा काल वर्त रहा हो तब उसी काल के अनुकूल गुणवाले चवालीस मुनिपुंगव निर्यापक स्थापित करने चाहिए ॥७०० || w हेयाः क्रमेण चत्वारश्चत्वारस्तावदञ्जसा । यावत्तिष्ठन्ति चत्वारः, काले संक्लेश- संकुले ।। ७०१ ।। कालानुसारिणी ग्राह्यौ, द्वौ जघन्येन योगिनो! भरतैरावतक्षेत्र - भव निर्यापकौ यतौ ।। ७०२ ॥ तथा संक्लेश बहुल काल में ज्यों-ज्यों काल खराब होता जावे त्यों-त्यों देश - कालानुसार अर्थ चार-चार निर्यापकों की संख्या क्रमशः कम करते जाना चाहिए। अन्त में चार निर्यापक ही समाधि मरण को सम्पन्न करते हैं। भरत - ऐरावत क्षेत्र में अत्यन्त निःकृष्ट काल आ जाने पर जघन्य रूप से दो योगी तो निर्यापक पदरूप से अवश्य ग्रहण करने योग्य हैं, इनसे कम नहीं || ७०१-७०२ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy