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________________ मरणकण्डिका -५०७ शत्रुता-मित्रता-अपकार और उपकार से बंधे हैं अमित्रं जायते मित्र-मुपकार-विधानतः । तनूजो जायते शत्रुरपकार-विधानतः ॥१८५०।। न कोपि देहिनः शत्रुर्न मित्रं विद्यते ततः । जायते कार्यमाश्रित्य, शत्रुर्मित्रं विनिश्चितम् ।।१८५१॥ अर्थ - शत्रु होकर भी उपकार कर देने से मित्र हो जाता है और स्वयं का पुत्र भी अपकार अर्थात् मातापिता की भर्त्सना, मारना, पीटना आदि दुर्व्यवहार करने से एक क्षण में शत्रु हो जाता है, अत: इस संसार में यथार्थत: कोई किसी का शत्रु या परजन एवं कोई किसी का मित्र या स्वजन नहीं है। उपकार या अपकाररूप कार्यों पर ही मित्रता या शत्रुता का व्यवहार निर्भर है। हे भव्य जीवो ! इससे यह निश्चय समझो कि मेरी आत्मा से ये सब ही पृथक् हैं ॥१८५०-१८५१॥ शत्रु-मित्र के लक्षण हितं करोति यो यस्य, स मतस्तस्य बान्धवः। स तस्य भण्यते वैरी, यो यस्याहित-कारकः ।।१८५२॥ अर्थ - संसार में कोई किसी का स्वाभाविक बन्धु एवं वैरी नहीं है। जो जिसका हित करता है वह उसका बन्धु माना जाता है और जो जिसका अहित करता है वह उसका वैरी माना जाता है॥१८५२ ।। बन्धुओं में शत्रुता के लक्षण कुर्वन्ति बान्धवा विघ्नं, धर्मस्य शिवदायिनः । तीव्र-दुःखकरं घोरं, कारयन्त्यप्यसंयमम् ।।१८५३॥ अर्थ - मोक्ष में शाश्वत सुख है। मोक्ष की प्राप्ति रत्नत्रय धर्म से ही होती है। हमारे जो इष्ट बन्धुजन रत्नत्रय रूप धर्मपालन में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित करते रहते हैं और घोर तथा अत्यन्त तीव्र दुख देने वाले हिंसादि पापों में एवं असंयमादि की प्रवृत्तियों में प्रेरित करते रहते हैं वे ही हमारे यथार्थ शत्रु हैं। ऐसा चिन्तन कर सबसे अपने को अन्य मानना चाहिए ।।१८५३ ॥ बन्धुरं साधवो धर्म, वर्धयन्ति शरीरिणः । संसार-कारणं निन्ध, त्याजयन्त्यप्यसंयमम् ॥१८५४ ।। साधवो बान्धवास्तस्माद्देहिनः परमार्थतः । ज्ञातयः शत्रवो रौद्र-भवाम्भोधि-निपाततः ।।१८५५ ॥ अर्थ - साधुजन संसारी जीवों के उद्धार हेतु उनके महामनोहर रत्नत्रय धर्म की वृद्धि कराते हैं तथा जो निन्ध है एवं संसार का कारण है ऐसे मिथ्यात्व तथा असंयम का त्याग कराते हैं अतः साधुजन ही परमार्थतः स्वजन या बन्धु हैं। एक कुल-जाति में उत्पन्न परिवार जन यथार्थत: शत्रु ही हैं, क्योंकि वे बन्धुजन महाभयंकर संसारसागर में गिराने वाले होते हैं॥१८५४-१८५५ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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