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________________ मरणकण्डिका- ४१७ विदधाति यतश्चक्षुर्महादोषमनिर्जितम् । निर्जेतव्यं ततः सद्भिः, सर्वथा तदतन्द्रितैः ॥१४९३ ॥ अर्थ - चक्षु इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करने से यह महादोष उत्पन्न करती है अतः साधुजनों को सर्व प्रकार से इस चक्षु इन्द्रिय को हीं जीतना चाहिए ॥१४९३ ।। शब्द - गन्ध-रस - स्पर्श-गोचराण्यपि यत्नतः । जेतव्यानि हृषीकाणि, योगिना शम-भागिना ।। १४९४ ।। अर्थ • प्रशम भाव को धारण करने वाले साधुजनों को प्रयत्नपूर्वक स्पर्श, रस, गन्ध एवं शब्द को - विषय करने वाली स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय एवं कर्णेन्द्रिय को भी जीतना चाहिए। अर्थात् स्पर्शादि विषयों में रागद्वेष का संकल्प करना छोड़ कर सम भावना रखनी चाहिए | १४९४ ॥ दुर्जयान्नर - निर्लिप - भर्तृभिः, पञ्च यो विजयतेऽक्ष - विद्विषः । तस्य सन्ति सकलाः कर- स्थिताः, सम्पदो भुवननाथ- पूजिताः ।। १४९५ ।। इति इन्द्रिय - निर्जय: । अर्थ - मनुष्यों के अधिपति चक्रवर्ती एवं देवों के ईश इन्द्र के द्वारा भी जो जीते नहीं जाते उन पंचेन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जो साधु जीतता है, पृथिवीपति द्वारा आदरणीय ऐसी सकल सम्पदाएँ स्वयमेव आकर उसके हाथ में स्थित हो जाती हैं। अर्थात् अन्य सम्पदाओं के अतिरिक्त इन्द्रियविजयी साधु को मोक्षसम्पदा भी प्राप्त हो जाती है ।। १४९५ ।। इस प्रकार इन्द्रियविजय का कथन पूर्ण हुआ । कषायविशेष को जीतने का दिशा निर्देश क्षमा गुण का स्वरूप दत्ते शापं विना दोषं नायं मेऽस्तीति सद्यते । कृपा कृत्येत्ययं पापं वराक: कर्ममर्जति ॥१४९६ ॥ अर्थ - यदि कोई व्यक्ति बिना किसी अपराध के गाली आदि दे रहा है और मुझ में वह दोष नहीं है तो इसमें मेरी क्या हानि है ? यह बेचारा झूठ बोल कर व्यर्थ ही पापबन्ध कर रहा है। अहो ! यह तो दया का पात्र है। इस प्रकार के चिन्तन द्वारा गाली आदि के कटु वचन सहन करने चाहिए ॥। १४९६ ।। सत्येऽपि सर्वतो दोषे, सहनीयं मनीषिणा । विद्यते मम दोषोऽयं, न मिथ्यानेन जल्पितम् ।। १४९७ ।। अर्थ - यदि कोई विद्यमान दोष भी कहता है तो भी बुद्धिमान साधु को सहन ही करना चाहिए और चिन्तन करना चाहिए कि यह जो कह रहा है वे दोष तो मुझ में विद्यमान हैं अतः यह झूठ तो कह नहीं रहा फिर क्रोध किस बात का, यह तो क्षमा का ही पात्र है ।। १४९७ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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