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________________ मरणकण्डिका - ४१८ शमोऽस्मि न हतोऽनेन, निहतोऽस्मि न मारितः। मरणेऽपि न मे धर्मो, नश्यतीति विषयते ।।१४९८ ॥ अर्थ - गाली आदि देने वाले के प्रति साधु को चिन्तन करना चाहिए कि यह व्यक्ति मुझे केवल गाली दे रहा है, मार तो नहीं रहा, यह समता रूपी गुण तो इसमें है। अथवा मात्र मार रहा है, मेरे प्राण तो नहीं ले रहा है। अथवा यह कवल मेरे प्राण ले रहा है किन्तु सर्व सुख देने में समर्थ ऐसे मेरे रत्नत्रय धर्म को तो नष्ट नहीं कर रहा है। इस प्रकार के पावन विचारों से एवं समतारूपी सम्बल से क्रोध पर विजय प्राप्त करते रहना चाहिए||१४९८॥ क्रोध को जीतने का अन्य उपाय क्रोधो नाशयते धर्म, विभावसुरिवेन्धनम् । पापं च कुरुते घोरमिति मत्वा विषह्यते॥१४९९ ।। अर्थ - जैसे अग्नि ईंधन को जलाती है वैसे ही क्रोध रत्नत्रय धर्म को जला देता है और घोर पापोपार्जन करता है, ऐसा जान कर साधु को क्षमा ही धारण करनी चाहिए ।।१४९९ ।। प्रश्न - क्रोध को अग्नि की उपमा क्यों दी गई है ? उत्तर - क्रोध में अग्नि के सदृश गुण-धर्म पाये जाते हैं अतः उसको अग्नि की उपमा दी गई है। यथायह क्रोधरूपी अग्नि अज्ञानरूपी काष्ट से उत्पन्न होती है, अपमान रूपी वायु से वृद्धिंगत होकर भड़कती है, इसमें से कठोर वचनरूपी स्फुलिंग निकलते हैं, हिंसा इसकी शिखा है, अत्यन्त बढ़ता हुआ वैर इसका धूम है और यह क्रोधानि धर्मरूपी उद्यान को भस्मसात् कर देती है अतः साधु को क्षमा धारण करनी चाहिए। पर-दुःख-क्रियोत्पन्नमुदीर्णं कल्मषं मम। ऋण-मोक्षोऽधुना प्राप्तो, विज्ञायेति विषयते ॥१५०० ।। अर्थ - पूर्व भव में दूसरों को दुख देकर या गाली देकर या मार कर अथवा अन्य भी पाप क्रिया से मैंने जो पापोपार्जन किया था उसी का फल अब उदय में आया है, सो अच्छा ही है। अब 'मैं ऋणमुक्त हो जाऊँगा' ऐसा चिन्तन कर क्रोध नहीं करना चाहिए ।।१५०० ।। अनुभुक्तं स्वयं यावत्काले न्यायेन तत्समम् । अधमर्णस्य किं दुःखमुत्तमर्णाय यच्छत्तः ॥१५०१॥ अर्थ - निर्धन व्यक्ति साहूकार से कर्ज लेकर स्वयं उसका उपभोग करता है। कर्ज का अवधिकाल आने पर उतना धन साहूकार को देना ही न्याय है। क्या कोई भी कर्जदार लिया हुआ कर्ज वापिस देते समय दुखी होता है ? नहीं, न्यायवान् को दुख नहीं होता। वैसे ही पूर्वभव में मैंने जिनका अहित किया था, या अपराध किया था उससे जो पाप कर्म उपार्जित किया था, अब उसका अवधिकाल आ चुका है, अर्थात् यह जो व्यक्ति मुझे गाली दे रहा है, या मार रहा है यह सब उसी पापकर्म की उदीरणा का फल है अतः इसे न्यायपूर्वक शान्ति से सहन करना ही मेरा कर्त्तव्य है, इस समय क्रोध करना तो अन्याय है। इस प्रकार के चिन्तन द्वारा साधु क्रोध पर विजय प्राप्त करता है।।१५०१।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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