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________________ मरणकण्डिका -१६६ शान्ति को प्राप्त कर सकता है,अतः समाधिमरण के इच्छुक क्षपक को प्रकारक गुण युक्त आचार्य के निकट ही समाधिमरण करना चाहिए ।।४७५ ॥ इस प्रकार प्रकारक-वर्णन पूर्ण हुआ। आय-अपाय विदर्शित्व गुण निरूपण अस्ति तीरं गतस्यापि रागद्वेषोदयः परः । परिणामश्च संक्लिष्टः क्षुत्तृष्णादि-परीषहैः ।।४७६ ।। अर्थ - यद्यपि क्षपक संसार-समुद्र के किनारे पहुंच चुका है अथवा उसका मनुष्य पर्याय का तीर आ चुका है फिर भी उसे रागद्वेष का तीव्र उदय आ सकता है जिससे भूख-प्यास की परीषहों के कारण क्षपक के परिणाम संक्लेशयुक्त भी हो जाते हैं ।।४७६ ॥ आलोचनां प्रतिज्ञाय, पुनर्षिप्रतिपद्यते। लज्जते गौरवाकांक्षी, स तां कर्तुमपास्तथीः ।।४७७ ।। अर्थ - क्षपक प्रतिज्ञा करता है कि मुनिदीक्षा से अद्यावधि रत्नत्रय में जो दोष लगे हैं, गुरु के समक्ष उनकी यथावत् आलोचना करूँगा, किन्तु आलोचना करते समय अपने बड़प्पन का आकांक्षी वह क्षपक जिस प्रकार अपराध किये हैं उसी प्रकार से कहने में लज्जा करता है।।४७७॥ तत्त: स्थापनाकारी, त्यागावज्ञानभीलुकः। क्षपको गुण-दोषौ नो, पूजाकामो विवक्षति ॥४७८ ।। अर्थ - तत्पश्चात् वह क्षपक अपने को सम्यक् आचार में स्थापित तो करना चाहता है किन्तु 'आलोचना करना गुण है तथा आलोचना न करना दोष है' यह नहीं जानता, अत: मैं यदि यथावत् दोष कह दूंगा तो ये मेरी अवज्ञा कर मुझे त्याग देंगे, इस प्रकार डरता है। अथवा पूजा, प्रतिष्ठा का आकांक्षी वह क्षपक अपने अपराध और शरीर के त्याग में तत्पर होता हुआ भी गुरु से अपने अपराध यथावत् नहीं कह पाता ।।४७८ ।। आयापाय-विधिर्येन, हेयोपादेय-वेदिना। दिश्यते क्षपकस्यासावायापायदिगुच्यते ॥४७९॥ अर्थ - पूजा-सत्कार की आकांक्षा से, लज्जा से या भय से जो क्षपक शुद्ध आलोचना नहीं कर पाता उसे हेयाहेय को जाननेवाले निपुण आचार्य आय एवं अपाय की विधि का उपदेश देते हैं, अत: उस आचार्य को आयोपायदर्शी कहते हैं।।४७९॥ प्रश्न - आयापाय किसे कहते हैं और आचार्य क्षपक को इसकी क्या विधि समझाते हैं ? उत्तर - रत्नत्रय के लाभ को अथवा उसकी विशुद्धि को आय या उपाय कहते हैं तथा रत्नत्रय के विनाश को अपाय कहते हैं। आचार्यदेव इसकी यही विधि क्षपक को समझाते हैं कि हे क्षपक ! यदि तुम अपने दोषों की आलोचना नहीं करोगे या मायाचारीपूर्वक मात्र सामान्य ही दोष कहोगे तो तुम्हारे रत्नत्रय का नाश हो जायेगा जिससे तुम चारित्रभ्रष्ट कहलाओगे और यदि बालकवत् सरल हुदय से यथावत् आलोचना कर लोगे
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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