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________________ मरणकण्डिका - १६७ तो तुम्हें रत्नत्रय धर्म की प्राप्ति हो जायेगी अथवा तुम्हारा रत्नत्रय निर्मल हो जायेगा। ततो वक्रमतेस्तस्य, सामान्यालोचनाकृते । आपायादिशा वाच्यौ, गुणदोषी गणेशिना ।।४८० ॥ अर्थ - यदि कोई वक्रबुद्धि क्षपक मायाचारपूर्वक विशेष दोषों को छिपाकर मात्र सामान्य दोषों की आलोचना करता है तो आयोपायदर्शी आचार्य उसे आलोचना के गुण-दोष कहते हैं ।।४८० ।। आचार्य का क्षपक को उपदेश दुःखत: संयमं लब्ध्वा , शरीरी भवसागरे। सशल्य-मृत्युना सारं, नाशयत्यपचेतनः ॥४८१॥ अर्थ - यह संसारी प्राणी इस भवसागर में अत्यन्त कठिनता से संयम को प्राप्त कर पाता है किन्तु अज्ञानी प्राणी मायाशल्ययुक्त मरण करके उस संयम को नष्ट कर देता है।।४८१॥ द्रव्यशल्ये यथा दुःखं, सर्वाङ्गीण-व्यथोदयः। भावशल्ये तथा जन्तोर्विज्ञातव्यमनुद्भुते ॥४८२ ।। अर्थ - जैसे शरीर में लगे बाण एवं काँटा आदि द्रव्यशल्य को न निकालनेवाला प्राणी पीड़ित और दुखी होता है, वैसे ही मायाचार रूप भाव-शल्य से युक्त साधु तीव्र दुखी होता है अर्थात् मायाचार युक्त आलोचना करके भावशल्य द्वारा अपने भव-भ्रमण को वृद्धिंगत करता हुआ दुखी होता है ।।४८२ ।। कंटकेऽनुद्धृते प्राप्तो, यथा त्वक्-कील नालिकाम् । पूति-वल्मीक-रन्ध्राणि, प्राप्याङ्घ्रि सटति स्फुटम् ॥४८३ ।। अर्थ - जैसे काँटा पहले चर्म में प्रवेश करता है उससे पैर में छिद्र हो जाता है। अनन्तर पैर में अंकुरवत् मांसवृद्धि होती है, पश्चात् वह काँटा नाड़ी तक घुसने से वहाँ का मांस सड़ता है, पुनः बहुत से छिद्र होकर वह पैर निरुपयोगी हो जाता है।।४८३ ।। विविधं दोषमापन्न:, संयमोऽनुद्धृते तथा। भय-गौरव-लज्जाभिः, भावशल्ये विनश्यति ॥४८४ ।। अर्थ - इसी प्रकार भय,गारव एवं लज्जा से प्रतिबद्ध साधु यदि माया रूप भावशल्य को नहीं निकालता है तो अनेक दोषों से युक्त होता हुआ संयम को नष्ट कर देता है ॥४८४ ।। प्रश्न - साधु किस प्रकार भय, गारव और लज्जा से प्रतिबद्ध होता है ? ____ उत्तर - यदि मैं सब अपराध कह देता हूँ तो गुरु मुझ पर बहुत क्रुद्ध होंगे, या मुझे बहुत बड़ा प्रायश्चित्त देंगे या मेरा त्याग कर देंगे, इस प्रकार भयभीत होता है। इसी प्रकार कभी लज्जा के कारण भी अपने दोष नहीं कह पाता। अथवा मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, महान् तपस्वी हूँ एवं जगत् में मेरी महान कीर्ति है, दोष प्रगट हो जाने पर मेरे सारे ज्ञान एवं तप पर पानी फिर जाएगा तथा जगत् में मेरा अपयश फैल जाएगा। इस प्रकार वह गारव से प्रतिबद्ध हो जाता है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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