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मरणकण्डिका - ५४
अर्थ - आचार्य आदि गुरुजनों के आगमन के समय या प्रस्थान करते समय खड़े होना, नमस्कार करना, नम्र होना, अञ्जलि बाँध कर आचार्यभक्ति आदि विधिपूर्वक कृतिकर्म करना। आचार्य, तपोधिक या अन्य महर्षियों के आने पर सम्मुख जाना, अन्यत्र विहार कर रहे हों तो कुछ दूर तक उनके साथ जाना या स्वयं भी उनके साथ विहार करना हो तो मार्ग में उनके पीछे-पीछे चलना आदि।।१२३ ।।
नीचं यानमवस्थानं, नीचं शयनमासनम्।
प्रदानमवकाशस्य, विष्टरस्योपकारिणः ॥१२४ ।। अर्थ - नीचे गमन, नीचे खड़े होना, नीचे शयन, नीचा आसन, उपकरणदान, अवकाशदान एवं शय्या तथा आसनदान आदि कायिक विनय के भेद हैं ।।१२४ ॥
प्रश्न - नीचे अवस्थान, नीचे शयनासन और अवकाशदान आदि का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - नीचं यानं अर्थात् नीचा स्थान - गुरु के स्थान से शिष्य का स्थान बिलकुल बराबरी का न हो, 'कुछ नीचा, कुछ पीछे और उनसे कुछ का हो नीचा अमान - गोपी इस प्रकार है कि अपने हाथ-पैर या श्वास आदि का स्पर्श गुरु को न हो। यदि सामने बैठने का अवसर प्राप्त हो तो थोड़ा हटकर और उनके वामभाग में बैठे। नीचे शयन - शयन करते गुरु के नाभिप्रदेश के समकक्ष शिष्य का मस्तक हो और बाजू में भी गुरु की शय्या से दो-पौने दो हाथ का अन्तर हो। यदि बाजू में स्थान न हो तो नीचे उनके चरणों की ओर सिर करके सोना । नीचा आसन - गुरु के आसन पर विराजमान हो जाने के बाद अपना मस्तक किंचित् नम्रकर, उद्धतता रहित जमीन पर बैठना । उपकरण दान - जिससे ज्ञान और संयमादि गुणों का उपकार होता है उसे उपकरण कहते हैं। उद्गम एवं उत्पादन आदि दोषों से रहित प्राप्त हुए उपकरण गुरु को प्रदान करना । अथवा गुरु के उपकरणों का सावधानीपूर्वक मार्जन करना। आसन दान - गुरु बैठना चाहते हैं ऐसा अभिप्राय जानकर मार्जन योग्य आसन देखना और उसे अथवा गुरु जहाँ नित्य विराजते हैं उसे कोमल पीछी से अत्यन्त धीरे-धीरे पोंछना या साफ करना । अवकाश दान - शीत ऋतु में अथवा शौत से पीड़ित गुरुजन को वायु रहित या उष्णता सहित स्थान देना, तथा ग्रीष्म ऋतु में या उष्णता से पीड़ित को शीतल स्थान देना।
देश-काल-वयो-भाव-धर्मयोग्य-क्रियाकृतिः । करणं प्रेषणादीनामुपधेः प्रतिलेखनम् ।।१२५ ।। व्यापारः क्रियते नित्यं, यः कायेनैवमादिकः ।
कायिको विनयोऽवाचि, साधूनां स यथोचितः ।।१२६ ॥ अर्थ - गुरुजनों की सेवा करते समय यह देखना योग्य है कि प्रदेश रूक्ष है या स्निग्ध है या जल बहुल है। शीत काल है या उष्ण काल है अथवा अन्य प्रकार से भी देश एवं काल के अनुकूल सेवा करनी चाहिए। गुरु की वय बाल है या यौवन है या वृद्ध है या अतिवृद्ध है उसके अनुसार सेवा करनी चाहिए। उनके व्रत एवं संयम में दूषण अथवा अतिचार आदि न लगे इस प्रकार उनके ग्राह्यधर्म की रक्षा करते हुए सेवा करनी चाहिए। उनके भावों के अनुकूल अथवा जैसी उनकी भावना या इच्छा हो, उनके शरीर को अपने शरीर का स्पर्श आदि न हो इस प्रकार बैठकर सेवा करनी चाहिए। उन्होंने जैसा सन्देशा अन्यत्र भेजने की आज्ञा दी हो उसे विनयपूर्वक