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________________ 20 मरणकण्डिका - २६९ अर्थ - जिनेन्द्रदेव असत्य को पापास्रव का द्वार कहते हैं। राजा वसु हृदय से निष्पाप था किन्तु इसका आश्रय लेने से अर्थात् असत्य का पक्ष लेने से नरक चला गया || ८७९ ॥ * राजा वसुकी कथा * स्वस्तिकावती नगरी में राजा विश्वावसु राज्य करता था। उसके पुत्रका नाम वसु था। वसु राजपुत्र, एक ब्राह्मणपुत्र नारद, ये क्षीरकदंब उपाध्यायके पास पढ़े थे, उपाध्यायका पुत्र पर्वत भी उन दोनोंके साथ पढ़ा, समय पर क्षीरकदंबने दीक्षा ली, राजा विश्वावसु ने भी दीक्षा ली। अब वसु, राजा बन गया। एक दिन पर्वत और नारदमें "अजैर्यष्टव्यं " इस शास्त्रवाक्य पर विवाद हुआ, पापी पर्वतने इस वाक्यका अर्थ बकरोंसे हवन करना अर्थात् पशुयज्ञ करना ऐसा किया और दयालु नारदने पुराने धान्योंसे हवन करना ऐसा किया। नारदका अर्थ करना बिलकुल सत्य था । पर्वतका कहना झूठा था। दोनों विवाद करते हुए राजा वसुके पास पहुँचे। दोनों ने अपनी बात रखी। यद्यपि राजा जान रहा था कि नारदका कहना सत्य है तो भी उसने पर्वत का पक्ष लिया क्योंकि वह पर्वतकी मातासे वचनबद्ध हुआ था कि मैं पर्वत के पक्ष में बोलूँगा । जब राजसिंहासन पर बैठे हुए बसु पर्वतका पक्ष लेकर झूठ बोलता है तो उस महापाप रूप असत्य भाषण से उसका सिंहासन पृथ्वीमें धँस गया और वसु वहाँ पर घुटकर तत्काल मरा और नरकमें चला गया। इसतरह असत्यके कारण वसुको घोर यातना भोगनी पड़ी। असत्य - वादिनो दोषाः, परत्रापि भवन्ति ते । मुञ्चतोऽपि प्रयत्नेन, मृषा-भाषादि दूषणम् ॥८८० ॥ अर्थ - असत्यवादी पुरुष परलोक में भी अविश्वास एवं असत्य आदि दोषों के अपवाद को प्राप्त होता है। भले उसने वहाँ असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप दोषों का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर दिया हो अर्थात् यहाँ असत्य भाषण करने से त्यागी हो जाने पर भी परलोक में उस पर झूठे आरोप आदि लगाये जाते हैं ॥८८० ॥ ये सन्ति वचनेऽलीके, दोषा दुःख - विधायिनः । त एव कथिता जैनैः, सकलाः कर्कशादिकाः ||८८१ ॥ अर्थ - असत्य वचन में जो दुखदायी दोष होते हैं, वे ही सब दोष कर्कश एवं कलह आदि रूप वचन बोलने से दोनों भवों में प्राप्त होते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है | ८८९॥ असत्य - मोचिनो दोषा, मुञ्चन्ति सकला इमे । तद्विपक्षा गुणाः सर्वे, लभ्यन्ते बुध-पूजिताः ॥ २८२ ॥ अर्थ - असत्य त्यागी के पूर्वोक्त अविश्वास आदि सर्वदोष छूट जाते हैं। तथा उन दोषों से विपरीत ज्ञानी पुरुषों द्वारा पूजित सर्वगुण उसे प्राप्त हो जाते हैं ||८८२ ॥ भव-भय-विचयन - वितथ-विमोची, निरुपम सुखकर-जिनमत-रोची । परमं दवयति कलिलमशेषं वशयति मुनि-नुत खचन- - विशेषम् ॥१८८३ ।। इति सत्यमहाव्रतम् ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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