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________________ मरणकण्डिका - १५३ ७. शरीर से रागभाव होने के कारण मनुष्य असंयम एवं परिग्रह में प्रवृत्ति करता है, अत: शरीर में अनादर भाव अचेलता का गुण है। ८. चेलधारी को देशान्तर जाने के लिए साहाय्य की आवश्यकता होती है और सहायता पराधीन होती है, अत; अचेलता में स्वाधीनता नामक गुण होता है। ९. वस्त्रधारी को भावशुद्धि का ज्ञान नहीं हो पाता, अतः अचेलता में चित्त की विशुद्धि को प्रगट करने का भी गुण है। १०. इस प्रकार अचेलता में निर्भयता, प्रतिलेखना का अभाव, वस्त्र को सीना, बाँधना, सुखाना, उठाना आदि रूप परिकर्म का अभाव, निष्परिग्रही होने से लघुता और तीर्थंकरों के मार्ग का उद्योत, ये सभी गुण समाविष्ट हैं। इस प्रकार वस्त्रधारण में अपरिमित दोष और अचेलता में अपरिमित गुण होने से अचेलता को स्थितिकल्प रूप से कहा गया है। २. औद्देशिक त्याग स्थितिकल्प - श्रमणों के उद्देश्य से बनाये गये भोजन आदि को औद्देशिक कहते हैं। अध:कर्म आदि के भेद से उसके सोलह प्रकार हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थगत साधुओं द्वारा यह सोलह प्रकार का औद्देशिक त्याग करने योग्य है। ३. शय्याधर पिण्डत्याग स्थितिकल्प - शय्याधर तीन प्रकार के होते हैं। वसतिका बनाने वाले, वसतिका का जीर्णोद्धार करानेवाले और जो मात्र वसतिका देते हैं कि आप यहाँ ठहरिये। इन तीनों प्रकार के दाताओं द्वारा दिया हुआ आहार, पीछी, कमण्डलु आदि शय्याधर पिण्ड है, उसका त्याग करना चाहिए। ४. राजपिण्डत्याग स्थितिकल्प - प्रजा का पालन और दुष्टों से रक्षण कर जो प्रजा का अनुरंजन करता है उसे, तथा उसी के सदृश महाऋद्धि या सम्पत्तिवान् को राजा कहते हैं। ऐसों का पिण्ड ग्रहण करना राजपिण्ड है। यह आहार, अनाहार और उपधि के भेद से तीन प्रकार का है। आहार - खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय के भेद से आहार चार प्रकार का है। अनाहार - तृण, फलक, आसनादि पदार्थ अनाहार हैं। उपधि - पीछी, कमण्डलु एवं वस्त्रादि उपधि हैं। ऐसा राजपिण्ड लेने में बहुत दोष आते हैं, अत: राजपिण्ड का त्याग कर देना चाहिए, किन्तु यदि कोई ऐसा कारण उपस्थित हो जाय कि आहार के बिना साधु का प्राणान्त हो रहा हो और साधु के मरण से श्रुत का विच्छेद हो रहा हो तो श्रुत की रक्षा हेतु राजपिण्ड ग्रहण किया जा सकता है। ५. कृतिकर्मप्रवृत्त स्थितिकल्प - छह आवश्यक क्रियाएँ आवर्त, शिरोनति, दण्डक और कायोत्सर्ग आदि से युक्त होती हैं, उन सब आवश्यकों को यथाविधि करना, अथवा चारित्रसम्पन्न मुनि का, गुरु का एवं अपने से बड़े साधुओं का विधिपूर्वक विनय करना कृतिकर्मप्रवृत्त स्थितिकल्प है। ६. व्रतारोपण अर्हत्व स्थिति कल्प - यह शिष्य व्रत धारण के योग्य हैं या नहीं इस प्रकार के परीक्षण की बुद्धि आचार्यों में अवश्य होनी चाहिए। जो अचेलकपने में स्थित रह सकता है, उद्दिष्ट आदि दोषों
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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