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________________ मरणकण्डिका - ३३५ महाधन-समृद्धोपि, पटहस्ताभिधो वणिक् । जातस्तृप्तिमनासाद्य, लुब्ध-धीर्दीर्घ-संसृतिः ॥१२०२॥ ___ अर्थ - पटहस्त नामक एक वणिक् महा समृद्धिशाली था किन्तु अत्यधिक लोभबुद्धि होने से निरन्तर धनासक्त रहता था। उसे किंचित् भी सन्तोष नहीं था, अत: धनासक्त अवस्था में ही मरण कर दीर्घ संसारी हुआ ।।१२०२।। * फणहस्त-पटहस्त वणिककी कथा * चंपापुरीमें राजा अभयवाहन जपनों पुंडरीका रानी के साथ सुखपूर्वक राज्य करता था। उस नगरीमें एक महाकंजूस लुब्धक नामका सेठ था, सेठानी नागवसु थी। वर्षाऋतुका समय था । रात्रिके समय नदीमें बहकर आयी हुई लकड़ियोंको लुब्धक इकट्टी कर रहा था। रानी पुंडरीकाने इस दृश्यको देखा और लुब्धकको दरिद्री समझ कर राजासे धन देनेको कहा। राजाने पता लगाकर सेठको बुलाया और कहा कि तुम्हें जो द्रव्य चाहिये सो खजानेसे ले जाओ। सेठने कहा-मुझे एक बैल चाहिये, राजाने कहा-गोशालामेंसे जैसा चाहिये वैसा बैल ले जाओ। सेठने उत्तर दिया, राजन् ! मैं जैसा चाहता हूँ वैसा बैल आपकी गौशालामें नहीं है। तब आश्चर्ययुक्त होकर राजाने पूछा कि तुम्हें कैसा वैल चाहिये ? सेठने कहा-मेरे पास एक बैल तो है किन्तु उसका जोड़ा नहीं होनेसे चिंतित हूँ। राजा विस्मित हो उसका बैल देखनेको चला, राजाको घरपर आये देख सेठ-सेठानीने उनका स्वागत किया। तलघरमें स्थित मयूर, हंस, सारस, मैना, अश्व, हाथी आदि पशु-पक्षियोंके रत्नसुवर्णनिर्मित युग को दिखाकर सेठने कहा कि इनमें एक बैल कम है। उसके लिये मैं परेशान हूँ। राजा उसका वैभव देखकर दंग रह गया तथा इतने धनके होते हुए भी लकड़ियाँ इकट्ठी करने जैसे निंद्य-कार्यमें प्रवृत्त देखकर उसके चाहकी दाहपर बड़ा खेद भी हुआ। राजा जब वापिस जाने लगा तब सेठानी नागवसुने सेठके हाथमें रत्नोंका भरा सुवर्णथाल राजाको भेंटमें देनेके लिये दिया। सेठका सारा रक्त मानों सूख ही गया। इतने रत्नोंके देते समय उसके दोनों हाथ लोभ और क्रोधके मारे काँपने लगे, राजाकी तरफ थाल करते वक्त उसके हाथ नागफणके सदृश राजाको दिखाई पड़े। राजा समझ चुका था कि यह सेठ महालोभी, कृपण, नीच एवं निंद्य है। उसके भावोंके अनुसार उसके हाथोंका परिवर्तन देखकर राजाने उसकी निंद्य भावना एवं परिग्रह लोभकी बहुत निंदा की और “यह फण-हस्त है" ऐसा उसका नामकरण करके राजा अपने महलमें लौट आया। इधर सेठ धन कमाने हेतु विदेश गया था। वहाँसे लौटते समय समुद्रके मध्य उपार्जित धन के साथ डूब गया और परिग्रहजन्य महालोभ के कारण मर कर नरक चला गया। हा-हा-भूतस्य जीवस्य, किं सुखं तृप्तितो विना। आशया ग्रस्यमानस्य, पिशाच्येव निरन्तरम् ॥१२०३।। अर्थ -- जो सदा तृष्णा से व्याकुल रहता है ऐसे हाय-हाय करने वाले धन-लम्पटी को धन प्राप्त हो जाने पर भी तृप्ति के बिना क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? जैसे पिशाची से ग्रसित मनुष्य निरन्तर दुखी रहता है, वैसी आशा पिशाची से ग्रस्त मानव धनाढ्य होते हुए भी कभी सुखी नहीं होता ॥१२०३ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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