SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका ३३४ अर्थ - धन के लिए कठोर परिताप को प्राप्त होकर पिण्याकगन्ध नामकलोभी और कुबुद्धि मनुष्य मर कर लल्लक नामक नरक बिल में उत्पन्न हुआ | ११९८ ।। * पिण्याकगंधकी कथा कांपिल्य नगर में रत्नप्रभ राजा राज्य करता था । उसी नगरमें एक पिण्याकगंध नामका सेठ था। वह करोड़पति होकर भी अत्यंत लोभी कृपण और मूर्ख था । न स्वयं धनका भोग करता था, न किसी परिवार जन को करने देता था। सब कुछ होते हुए भी खल खाया करता था इसलिये उसका नाम पिण्याकगंध पड़ा था | पिण्याक खलीको कहते हैं। यह सेठ उस पिण्याक को सूंघकर गंध लेकर खाया करता अतः पिण्याकगंध नामसे पुकारा जाता था। एक दिन राजाने तालाब का निर्माण कराया, उसकी खुदाईमें एक नौकरको लोहेकी संदूक में बहुतसी सलाइयाँ मिलीं। नौकरने एक-एक करके पिण्याक के यहाँ उन सलाइयोंको बेचा। पहले सलाई लेते समय तो उस सेठको मालूम नहीं पड़ा कि यह सलाई किस धातुकी है, लोहे की समझकर खरीदी। पीछे ज्ञात हुआ किन्तु लोभवश लोहेके मूल्यमें खरीदता रहा। किसी दिन वह अन्यत्र गया हुआ था। जब नौकर सलाई बेचने आया तो सेठ पुत्रने सलाई खरीदनेको मना किया। नौकर दूसरी जगह बेचनेको गया । इतनेमें सिपाहीने उसे पकड़ लिया और राजाके समक्ष उपस्थित किया। नौकर ने सब बात बतादी कि पिण्याकगंधको सलाई बेची है और लोहेके भावमें बेची है। राजाको क्रोध आया। उसने सेठका सारा धन छीन लिया। जब पिण्याकगंधको अपने धनका नाश होना मालूम हुआ तो अत्यंत रौद्रभावसे उसने कुपित होकर अपने पैर काट डाले कि इन पैरोंसे मैं यदि दूसरे ग्राम नहीं जाता तो मेरा धन नहीं लुटता । इसतरह पैरों के कट जानेसे तीव्र वेदनाके साथ वह मर गया और छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे इन्द्रक बिलमें उत्पन्न हुआ । वहाँ पर भयंकर वेदना सहता रहा। इसप्रकार परिग्रहका मोह महान् परितापका कारण है, ऐसा जानकर भव्योंको उसका त्याग करना चाहिये । पिण्याकगंधकी कथा समाप्त । कुर्वतोऽपि परां चेष्टामर्थ - लाभो न निश्चितम् । सञ्चीयते विपुण्यस्य, नार्थी लब्धोऽपि जातुचित् ।। ११९९ ।। अर्थ अत्यधिक पुरुषार्थ करने पर भी धन का लाभ होना निश्चित नहीं है, तथा पुण्य रहित जीव के कदाचित् कुछ धन हो भी जाय, तो वह संचित नहीं रह पाता, अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है ।। ११९९ ॥ - नार्थे सञ्चीयमानेऽपि पुरुषो जातु तृप्यति । अपध्येन यथा व्याधिर्लोभो लाभेन वर्धते ।। १२०० ॥ अर्थ - कदाचित् धन का संचय हो भी जाय तो भी लोभी पुरुष कभी तृप्त नहीं होता । जैसे अपथ्य सेवन से व्याधि वृद्धिंगत होती जाती है, वैसे ही धन-लाभ से पुनः पुनः लोभ बढ़ता जाता है ।।१२०० ॥ नदी जस्तैरिवाम्भोधिरिन्धनैरिव पावकः । लोकैस्त्रिभिरपि प्रामैर्न, जीवो जातु तृप्यति ।। १२०१ ।। अर्थ - जिस प्रकार नदियों से सागर और ईंधन से अनि तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त हो जाने पर भी लोभी जीव कभी तुम नहीं होता है ।। १२०१ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy