SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ४७९ अर्थ - इस प्रकार आहार ग्रहण से होने वाले सुख का काल एक निमेष मात्र का है। अर्थात् एक बार आँख की पलक बन्द करके पुनः आंख खोलने में जितना समय लगता है, उतना ही है। आहार की गृद्धता अर्थात् अभिलाषा से ही मनुष्य उसे जल्दी-जल्दी (वेग से) निगलता जाता है क्योंकि अभिलाषा बिना इन्द्रियसुख नहीं होता ||१७४७ ॥ अशनं कांक्षतो नित्यं, व्याकुलीभूत-चेतसः। दरिद्र-चेटकस्येव, गृद्धस्यास्ति कुत: सुखम् ।।१७४८ ॥ अर्थ - आहारविषयक लम्पटता के साथ जिसके चित्त में नित्य ही आहार-आकांक्षा की व्याकुलता रहती है उसे सुख कहाँ से हो सकता है ? जैसे चिरकाल से अन्न की अभिलाषा करने वाले दरिद्र दास को सुख नहीं होता, वैसे ही आहार लम्पटी को सुख नहीं होता ||१७४८ ।। को नामाल्प-सुखस्यार्थे, वळ्यते सुखतो बहोः। सङ्करलेश:क्रियते येन, मृतिकालेऽपि दुर्धिया ।।१७४९ ।। अर्थ - कौन ऐसा पुरुष है जो अल्प सुख के लिए बहुत सुख से वंचित होना चाहेगा ? हे क्षपक! यदि तुम आहार के अल्प सुख में आसक्त हो जाते हो अर्थात् अल्प आहार के लिए समाधिमरण के शुभावसर पर भी दुर्बुद्धि से संक्लेश करते हो तो तुम्हें स्वर्गादि के महान सखों से वंचित रहना पड़ेगा ।।१७४९॥ मधु-लिप्तामसेर्धारा, निशातां स लिलिक्षति । बुभुक्षते विषं घोरं, संन्यस्तो योऽशनायति ॥१७५०॥ अर्थ - जो क्षपक संन्यास ग्रहण कर अयोग्य आहार की लिप्सा करता है वह शहद से लिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार को चाटना चाहता है, अथवा घोर विष खाकर भूख शान्त करना चाहता है। अर्थात् जैसे मधुलिप्त तलवार चाटते समय मधु के स्वाद से सुख होता है किन्तु जिह्वा कट जाने से भयंकर पीड़ा होती है, वैसे ही संन्यास में मरते समय यदि परमेष्ठी की साक्षीपूर्वक त्याग किये हुए आहार को खाता है तो तत्काल इच्छापूर्तिजन्य सुख होगा किन्तु आराधना गल जाने से दुर्गति में घोर वेदना होगी॥१७५० ।। असिधारा-विषे दोषमेकत्र कुरुते भवे। अशनायाः पुनर्जन्तोर्दुरितं भव-कोटिषु ।।१७५१॥ अर्थ - मधु लिप्त तलवार की धार और विष ये एक ही भव में अनर्थ करते हैं किन्तु क्षपक द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार उस जीव को करोड़ों भवों में दुख देता है ।।१७५१ ।। शरीरं मानसं दुःखं,दृश्यते यज्जगत्त्रये। तद्ददाति यते: सर्वं, अशनाया विसंशयम्॥१७५२।। अर्थ - तीन लोक में जो-जो शारीरिक और मानसिक दुख दिखाई देते हैं वे सब साधु को अयोग्य भोजन के फलस्वरूप मिलते हैं, इसमें संशय नहीं है। अर्थात् अनादि संसार में जीव को जो अनन्तबार शारीरिक और मानसिक दुख भोगने पड़ते हैं उसका कारण अयोग्य आहार ही है।।१७५२ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy