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________________ मरणकण्डिका - ४७८ भोज्यं कण्ठगत प्राणैर्भुक्त्वा प्रार्थनयाहृतम् । किमिदानीं पुनस्तृप्तिं, सुबुद्धे ! त्वं गमिष्यसि ॥ १७४२ ।। अर्थ - हे सुबुद्धे ! अब तुम्हारे प्राण कण्ठगत हैं। जब अतीत में विपुल एवं पुष्ट भोजन से भी तुम्हें तृप्ति प्राप्त नहीं हुई तब इस मरण बेला में गोचरी द्वारा लाये हुए किंचित् आहार को खाकर क्या तृप्ति प्राप्त कर सकोगे ? नहीं कर सकोगे ।। १७४२ ॥ न तृप्तिर्यस्य सम्पन्ना, पीते जलनिधेर्जले । अवश्याय - कणैर्द्वित्रैः पीतैः किमु स तृप्यति ? || १७४३ ॥ > - • जिसे समुद्र को पीकर भी तृप्ति प्राप्त नहीं हुई क्या उसे ओस के दो-तीन बिन्दुकणों को चाट अर्थ लेने से तृप्ति हो जायेगी ? कदापि नहीं हो सकती ।। १७४३ ॥ भुक्त-पूर्वे यते ! कोऽस्मिन्नाहारे तव विस्मयः । अपूर्वे युज्यते कर्तुमभिलाषो हि वस्तुनि ।। १७४४ ॥ अर्थ - हे क्षपक ! जो आहार पूर्व में तुम अनेक बार आ चुके ही उसने तुम्हारी यह उत्सुकता वा इच्छा या विस्मय कैसा ? क्योंकि यह सब तो अनेक बार प्राप्त हो चुका है। अपूर्व वस्तु में ही अभिलाषा जाग्रत होती है। यह आहार भी यदि अपूर्व होता तो उसमें अभिलाषा करना योग्य भी था। इस तथ्य का चिन्तन करो || १७४४ || आपात सुखदे भोज्ये, न सुखं बहु विद्यते । गुद्धितो जायते भूरि, दुःखमेवाभिलाप्यतः ॥ १७४५ ।। अर्थ - आहार में बहुत सुख नहीं है। केवल तत्काल में सुखदायक इस भोज्य पदार्थ के स्पर्श मात्र का किंचित् सुख है, किन्तु इच्छित आहार की गृद्धता या लिप्सा से जो दुख होता है वह दुख बहुत अधिक है ।। १७४५ ।। आहार में स्वल्प सुख होने का कारण अतिक्रामति वाजीव, जिह्वामूलं स वेगत: । तत्रैव बुध्यते स्वादं भुञ्जानो न पुनः परे ।। १७४६ ।। अर्थ - जैसे उत्तम घोड़ा अतिवेग से दौड़ता है, वैसे ही भोज्य पदार्थ जिह्वा के मूलभाग का अतिवेग से उल्लंघन कर जाते हैं । अर्थात् जिह्वा पर ग्रास आते ही वह झट पेट में चला जाता है और आहार के स्वाद का ज्ञान या प्रतीति जिह्वा के अग्रभाग पर रहते हुए ही होती है, न पहले होती है और न पीछे होती है। अर्थात् भोजन करने वाले को आहार का आस्वादन उसके जिह्वा पर पहुँचने के पूर्व और जिह्वा के अग्रभाग से आगे बढ़ते एवं गले से नीचे उतरते समय नहीं आता। इस प्रकार आहार का सुखानुभव अत्यन्त अल्प है || १७४६ ॥ निमेष - मात्र सौख्यमाहार-ग्रहणे परम् । द्धितो गिलति क्षिप्रं तया न हि विना सुखम् ।। १७४७ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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