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परणकण्डिका - ४७०
भोगिनश्चक्रिणो रामा, वासुदेवाः पुरन्दराः ।
नाहारैस्तृप्तिमायातास्तृप्यन्त्यत्र परे कथम् ।।१७३९ ।। अर्थ - भोगभूमिज मनुष्य, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और इन्द्रादि महान् जीव भी जब विशिष्ट आहार से भी तृप्त नहीं होते या नहीं हुए तब अन्य साधारण जीव साधारण आहार द्वारा कैसे तृप्त हो सकते हैं ? अपितु नहीं हो सकते ॥१७३९ ।।
प्रश्न - चक्रवतों आदि का विशिष्ट आहार किस प्रकार का होता है ?
उत्तर - स्वर्ग में देवेन्द्रों का मानसिक आहार होता है। इन देवेन्द्रों के लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम बहुत तीव्र होता है अतः इन्हें शरीर की कांति स्थिर रखने वाले आहार की प्राप्ति होती है। आयु प्रमाण के अनुसार नियत समय पर ही इन्हें भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है जो कण्ठ से अमृत झरते ही पूर्ण हो जाती है किन्तु उस अमृत से भी वे इन्द्रादि देव सदा के लिए तृप्त नहीं हो पाते।
___ भोगभूमिज मनुष्य भोजनांग एवं पानांग नामक कल्पवृक्षों से भोजन-पान प्राप्त करते हैं। भोजनांग वृक्ष इन्हें १६' प्रकार का आहार, १७ प्रकार के व्यंजन, १४ प्रकार की दाल, १०८ प्रकार के खाद्य-पदार्थ, ३६३ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं ६३ प्रकार के रस देते हैं, तथा पानांग वृक्ष ३२ प्रकार के पेय पदार्थ देते हैं। ऐसे उत्तम पदार्थों को खाकर भी वे जीव सदा के लिए तृप्त नहीं होते हैं।
चक्रवर्ती के भी तीन सौ साठ रसोइया होते हैं और वे सब मिल कर एक वर्ष का आहार एक दिन में बनाते हैं। चक्रवर्तियों के लिए जो लड्डू बनते हैं वे इतने पौष्टिक होते हैं कि मात्र अर्ध लड्डू में उनका पूरा कटक तृप्त हो जाता है। ऐसे उत्तम एवं पौष्टिक भोजन से भी सदा के लिए उनकी भोजन वांछा तृप्त नहीं हो पाती। बलभद्र, नारायण एवं प्रतिनारायणों की भी यही स्थिति है। आचार्यदेव क्षपक को समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! जब दिव्यभोजी महापुरुष भी कभी इस भोजन से तृप्ति को प्राप्त नहीं हुए तब गोचरी वृत्ति से पराये घर में किंचित् आहार से क्या तुप्ति होगी? अतः अब अन्त समय में आहार की इच्छा करना व्यर्थ है।
रत्याकुलित-चित्तस्य, प्रीति स्ति रति विना ।
प्रीतिं विना कुत: सौख्यं, सर्वदा गृद्ध-चेतसा ।।१७४० ।। अर्थ - 'यह आहार उत्तम है', इससे भी अधिक उत्तम यह आहार है' इस प्रकार जिस आहार-लम्पटी का चित्त चंचल रहता है, उसके चित्त में रति उत्पन्न नहीं होती। बिना रति के प्रीति उत्पन्न नहीं हो सकती और प्रीति के बिना मनुष्य को आहार से सुख प्राप्त कैसे हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता॥१७४० ॥
पुद्गला विविधोपायैः, सकला भक्षितास्त्वया।
अतीतेऽनन्तश: काले, न च तृप्तिं मनः श्रितम् ॥१७४१ ।। अर्थ - हे क्षपक ! अतीत काल में अनन्तबार अन्न, पान, खाद्य, स्वाद्य एवं लेयादि अनेक उपायों के द्वारा तुमने समस्त पुद्गलों का भक्षण किया है फिर भी तुम्हारा मन तृप्त नहीं हुआ॥१७४१ ॥ १. तिलोयपपणती भाग दो, अधिकार चौथा, गाथा ३४७ से ३५२ तक।