SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ३९० ततोऽपथेन धावन्तः, कुशीलानां क्रियावने । क्लेश-स्रोतोभिरुहान्ते, याता: संज्ञा-महानदीः॥१३६६ ॥ अर्थ - कुमार्ग पर दौड़ते हुए वे साधु कुशीलरूप वन में स्थित आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा रूपी महानदी को प्राप्त हो क्लेशरूपी प्रवाह द्वारा बहा कर ले जाये जाते हैं ।।१३६६॥ संज्ञा-नदीषु ते मग्नाः, क्वचिदप्यनवस्थिताः। पश्चाजन्मोदधिं यान्ति, दुःख-भीम-झषाकुलम् ॥१३६७ ।। अर्थ - संज्ञारूपी महानदी में डूब जाने वाले उस साधु को वहाँ कहीं पर भी स्थिर ठहरने का स्थान नहीं मिलता अतः वे आगे-आगे बहते जाते हैं और अन्ततोगत्वा भयानक दुखरूपी मछलियों से व्याप्त जन्मकामरूपी संसार मु में जिलाते हैं : १३६७।। दुराशा-गिरि-दुर्गाणि, गत्वा दण्ड-शिलोत्करे। . भ्रष्टाः सन्ताश्चिरं कालं, गमयन्ति महाव्यथाः॥१३६८ ।। __अर्थ - संसार-समुद्र में प्रविष्ट हो जाने पर वे मुनि आशारूपी पर्वतों के दुर्गम स्थानों को लांघते हुए दण्ड रूपी निष्ठुर शिला पर गिरते हैं। अर्थात् मन, वचन और काय की असत् प्रवृत्तियों में तल्लीन हो जाते हैं, इस प्रकार चारित्र से भ्रष्ट होकर चिरकाल तक महादुख भोगते हुए समय बिताते हैं।।१३६८।। पापकर्म-महाटव्यां, विप्रनष्टा: कदाचन ।। सुख-मार्गमपश्यन्तस्तत्रैवायान्ति ते पुनः ॥१३६९॥ अर्थ - अशुभ कर्मरूप महा भयंकर अटवी में दिग्मूढ़ हुए वे मुनि निर्वाणमार्ग कभी न देख पाने से पुन: पुन: वहीं भ्रमण करते हैं। अर्थात् सर्वप्रथम वे उत्तर गुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट होकर अनन्तकाल पर्यन्त संसार में भटकते रहते हैं ॥१३६९ ।। साधु-सार्थं स दूरेण, त्यक्त्वोन्मार्गेण नश्यति । क्रिया यान्ति कुशीलाना, या सूत्रे प्रतिदर्शिताः ॥१३७० ।। अर्थ - ऐसे साधु साधर्मियों के संग को दूर से ही त्याग कर कुमार्ग में दौड़ते हुए चारित्रभ्रष्ट हो जाते हैं और आगम में कही हुई कुशील मुनियों की क्रियाओं के सदृश ही आचरण करने लगते हैं।।१३७० ॥ कषायाक्ष-गुरुत्वेन, वृत्तं पश्यस्तृणं यथा। सेवते ह्रस्वको भूत्वा, कुशील-विषयाः क्रियाः॥१३७१॥ (इति कुशीलः) अर्थ - वे मुनि इन्द्रिय और कषायरूप परिणामों की तीव्रता के कारण चारित्र को तृण के सदृश मानते हैं और अत्यन्त हीन अर्थात् निर्लज्ज होकर कुशील विषयजन्य क्रियाओं का आचरण करते हैं ।।१३७१ ।। ॥ इस प्रकार कुशील मुनि का कथन पूर्ण हुआ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy