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________________ मरणकण्डिका - ४८९ अर्थ - ध्यान के इच्छुक महाबलशाली मुनिजन मन एवं इन्द्रियों को विषयों से हटाकर आत्मा में एकाग्र कर लेते हैं॥१७९३ ।। मन को रोककर क्या करना चाहिए ? ध्यायत्येकाग्र-चेतस्को, धर्म्यध्यानं चतुर्विधम् । आज्ञापाय-विपाकानां, संस्थाया विषयं सुधीः ॥१७९४ ।। अर्थ - मन को रोक लेने वाले वे बुद्धिशाली मुनिराज एकाग्र चित्त से आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय एवं संस्थानविचय नामक चार प्रकार के धर्म्यध्यानों का ध्यान करते हैं॥१७९४ ।। प्रश्न - धर्मध्यान किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसमें स्वभावरूप अतिशयता विद्यमान होती है उसे वस्तु कहते हैं और जो वस्तु की वस्तुता को धारण करता है उसे धर्म कहते हैं अर्थात् धर्म शब्द वस्तु-वभाव का वाचक है। चैतन्यादि रूप स्वभाव की अतिशयता से ही जीवादि वस्तुएँ हैं। यहाँ धर्म शब्द विवक्षित धर्मविशेष को कहते हैं अतः आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान आदि धर्म जिसमें ध्येयरूप होते हैं उसे धर्मध्यान कहते हैं। प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ? उत्तर - छह संहननों में से आदि के तीन अर्थात् वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच एवं नाराच ये तीन संहनन उत्तम कहे जाते हैं। इनमें से किसी एक संहनन वाले के एकाग्रचिन्ता-निरोध को ध्यान कहते हैं। प्रश्न - चिन्तानिरोध का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - यहाँ चिन्ताशब्द चैतन्य का वाचक है। यह चैतन्य अन्य-अन्य पदार्थों को जानते हुए ज्ञान पर्यायरूप से वर्तन करता है अत: वह परिस्पन्दन वाला है, इसका कुछ समय के लिए एक ही विषय में प्रवृत्ति करना चिन्तानिरोध का अभिप्राय है । प्रश्न - ध्येय किसे कहते हैं ? उत्तर - ध्यान के अवलम्बनभूत पदार्थों को अथवा उनके विषयों को ध्येय कहते हैं । आत्मा, परमात्मा एवं जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय हैं। ये नौ पदार्थ जीवाजीवात्मक हैं। फिर भी रागादि का निरोध करने में निमित्त होते हैं। इस प्रकार ध्याता जिस-जिस वस्तु में अपना मन एकाग्र करता है वह-वह वस्तु ध्यान का अवलम्बन होने से ध्येय बन जाती है तथा रागादि के अभाव में वही ध्येय कर्मक्षय का निमित्त बन जाते हैं। प्रश्न - धर्मध्यान कितने प्रकार का है और उनके लक्षण क्या हैं ? उत्तर - ध्येय के भेद से धर्मध्यान चार प्रकार का होता है। आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विषय एवं संस्थान विचय । आज्ञा विचय - राग-द्वेषादि अठारह दोषों से रहित होने के कारण जिनेन्द्र “अन्यथा वादी नहीं होते" ऐसी दृढ़ श्रद्धापूर्वक आज्ञा के बल से प्रत्यक्ष और अनुमानादि प्रमाणागम के विषयभूत पदार्थों का अर्थात् पंचास्तिकाय, छह जीव निकाय तथा कालद्रव्यादि आज्ञा-ग्राह्य अन्य-अन्य पदार्थों का ध्यान करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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