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________________ मरणकण्डिका - ४९० प्रश्न - जिनेन्द्राज्ञा का अवलम्बन क्यों लेना पड़ता है ? उत्तर - बुद्धि की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के ज्ञाता आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय पदार्थों की गहनता होने से, ज्ञानावरण कर्म की तीव्रता होने से और स्वयं को तो ज्ञान है किन्तु सिद्धान्त प्रतिपादित पदार्थ एवं तत्त्व दूसरों को समझाने में हतुभूत युक्तियों, हेतुओं एवं उदाहरणों की प्राप्ति सम्भव न हो पाने से "सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम में जो तत्त्व जैसे कहे गये हैं, वैसे ही हैं अन्यरूप नहीं हैं" इस प्रकार की आज्ञा ही अवलम्बनीय होती है। प्रश्न - जिनेन्द्राज्ञा में ऐसी क्या प्रकर्षता है जो कर्मनिर्जरा एवं कर्मक्षय तक का निमित्त बन जाती है? उत्तर - भगवान् जिनेन्द्र की आज्ञा जगत् के लिए प्रदीप स्वरूप है, सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगहितकारी है, अमूल्य है, अमित है, अजित है, महान् अर्थ से परिपूर्ण है, महानुभाव है, महान् विषयवाली है, निरवद्य है, अनिपुण एवं अज्ञों के लिए दुर्जेय है तथा नय-भंगों से प्रमाणागम से गहन है। ऐसी जिनेन्द्राज्ञा जगत् के जीवों द्वारा सेवित है। अपाय विचय- मार्ग दिखाई न देने से जैसे जन्मान्ध मनुष्य सन्मार्ग से दूर रहते हैं, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव सर्वज्ञप्रणीत मोक्षमार्ग से विमुख हो रहे हैं। ये बेचारे तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ पा रहे हैं। इन अज्ञानी प्राणियों का यह मिथ्यात्व एवं अज्ञान कैसे दूर हो; इत्यादि प्रकार से विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। विपाक विचय - ज्ञानावरणादि कर्मों की बंध, उदय, सत्त्व एवं संक्रमण आदि अवस्थाओं का, उनके उदयागत फलों का एवं किस द्रव्य-क्षेत्रादि से कौनसा कर्म फल देने के सम्मुख होता है, इन विषयों का चिन्तन करना विपाक विचय धर्मध्यान है। संस्थान विचय - तीन लोक का स्वभाव, आकार, स्वर्ग, नरक आदि की अवस्थिति एवं इन सब के प्रमाणादि का चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। धर्मध्यानी एवं धर्मध्यान के लक्षण (चिह्न) मार्दवार्जव-नैःसङ्ग्य-हेयोपादेय-पाटवम्। ज्ञेयं प्रवर्तमानस्य, धर्मध्यानस्य लक्षणम् ॥१७९५ ॥ अर्थ - मार्दव, आर्जव, नि:संगपना और हेयोपादेय तत्त्व को समझने-समझाने की पटुता, ये सब धर्मध्यानी के तथा धर्मध्यान के लक्षण हैं ।।१७९५॥ प्रश्न - मार्दवार्जवादि गुणों के क्या लक्षण हैं? और इन गुणों का धर्मध्यान से क्या सम्बन्ध है? उत्तर - जाति, कुलादि का अभिमान नहीं करना मार्दव गुण है। एक धागे के दोनों छोर पकड़ कर खींचने से जैसे उसमें सरलता प्राप्त हो जाती है, कुटिलता नहीं रहती, वैसे ही कुटिलता नहीं रहने अथवा परिणामों की सरलता को आर्जव कहते हैं। परिग्रह में अनासक्ति, निर्लोभता एवं लघुता को नि:संगत्वगुण कहते हैं और जिनमत के विवेचन द्वारा आस्रवादि हेय तत्त्व और आत्मा, संवर-निर्जरादि उपादेय तत्त्वों को समझाने में या स्वयं समझने में प्रवीण होना धर्मध्यान के लक्षण या चिह्न हैं। जिसमें ये गुण होते हैं उसे धर्मध्यानी कहते हैं। अथवा मार्दवादि गुणों से युक्त जीवों के ही धर्मध्यान सम्भव है। मार्दवादि गुण कारण हैं और धर्मध्यान लक्ष्य है, अतः मार्दवादि गुणों में और धर्मध्यान में कार्य-कारण भाव या लक्ष्य-लक्षणभाव है |
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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