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________________ मरणकण्डिका- ३२९ अर्थ - वस्त्र मात्र का त्याग करने से और शेष सर्व परिग्रह रखने से कोई संयमी साधु नहीं हो सकता, अतः 'अचेलत्व' शब्द से सर्व परिग्रह का त्याग करना ही अभिमत है । अर्थात् सर्व परिग्रह का त्याग ही अपरिग्रह महाव्रत का समीचीन लक्षण है । ११८० ॥ परिग्रहार्थं प्रणिहन्ति देहिनो, वदत्यसत्यं विदधाति भोषणं । निषेवते स्त्रीं श्रयते परिग्रहं न लुब्ध-बुद्धिः पुरुषः करोति किम् ।। ११८१ ।। अर्थ संसारी प्राणी परिग्रह के लिए असि, मषि, कृषि आदि षट्कर्मों द्वारा जीवों का घात करता है एवं मनुष्यों तक का वध कर देता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है, स्त्रीसेवन करता है एवं धन के लोभ में पर के साथ भी मैथुनलेवन का कार्य करता रहता है, परिग्रह का आश्रय लेता है। इस प्रकार लोभग्रसित बुद्धि वाला पुरुष क्या-क्या अयोग्य कार्य नहीं करता ? सर्व पाप करता है ।। ११८१ ॥ संज्ञा - गौरव - पैशून्य - विवाद - कलहादयः । जयन्ते दुर्दर्द दोषा १९२॥ अर्थ- जैसे दुर्नय द्वारा कुनय या अनीति से विवाद आदि दोष उत्पन्न होते हैं, वैसे ही परिग्रह के द्वारा आहारादि की वांछारूप संज्ञाएँ रसगारवादि रूप दर्प, चुगली, विवाद और कलहादि दोष उत्पन्न होते रहते हैं ।। ११८२ ।। - प्रश्न परिग्रह से उपर्युक्त दोष कैसे उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - परिग्रह में आसक्ति होने से परिग्रह आदि चारों संज्ञाओं की वृद्धि होती है। अधिक धन एवं भोगोपभोग की सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाने से गारव पुष्ट होते हैं। परिग्रही पुरुष धनप्राप्ति हेतु दूसरे के दोषों को इधर-उधर कहता फिरता है। धन के लिए विवाद करता है, कलह करता है, झगड़ा करता है, कठोर वचन कहता है, कभी मायाचारी से मधुर वचन भी बोलता है, यह व्यक्ति अमुक को देता है, मुझे नहीं देता, इस प्रकार के खोटे परिणाम रूप ईर्षा करता है और धनाढ्यजनों की धनाढ्यता न सहन करने रूप असूया करता है । क्रोधं लोभं भयं मायां, विद्वेषमरतिं रतिम् । द्रवणार्थी निशा भुक्ति, विदधाति विचेतनः ॥ ११८३ ॥ अर्थ - धन का इच्छुक मोहित पुरुष क्रोध, लोभ, भय, माया, विद्वेष, अरति, रति एवं रात्रि भोजनादि अनेक पाप करता है ॥ ११८३ ॥ प्रश्न- मनुष्य को जैसे क्रोध प्रकृति के उदय से क्रोध आता है, वैसे ही लोभ, भय एवं रति- अरति कर्म प्रकृतियों के उदय से तद्रूप परिणाम होते हैं, फिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि परिग्रह के लिए क्रोधादि करता है ? उत्तर - क्रोधादि उत्पन्न होने में अभ्यन्तर कारण तत् तत् कर्म प्रकृतियों का उदय है किन्तु बाह्य कारणों में परिग्रह पाप ही प्रमुख हेतु है। यथा- धन उपार्जन की प्रतिकूलताओं में, इष्ट धन प्राप्ति न होने या उसमें किसी के बाधक बन जाने पर क्रोध करता है। धनादि की वृद्धि हो जाने पर गर्व करता है, धनार्जन में या धन
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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