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________________ मरणकण्डिका - ३३० के आदान-प्रदान में मायाचार करता है। धनार्जन में अधिकाधिक लाभ की वांछा करता है. लाभ हो जाने पर और अधिक की प्राप्तिरूप लोभ करता है, निर्धन को देखकर हँसता है, अपने द्रव्य में रति करता है, द्रव्य का नाश हो जाने पर अरति करता है, द्रव्यहरण की शंका से भय करता है, धन-हरण हो जाने पर शोक करता है, परिग्रह की विरूपता पर ग्लानि करता है तथा स्वामी की सेवा में रत रहने के कारण, या फैक्ट्री आदि के संचालन की या धनोपार्जन की गृद्धता के कारण रात्रि में भोजन करता-कराता है, इस प्रकार परिग्रह के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा एवं रात्रिभोजनादि रूप अनेक पाप करता है। इससे सिद्ध होता है कि परिग्रह ही सर्व अनर्थ कराता है। ग्रन्थो महाभयं नृणामेकरथ्ये सहोदरौ । ग्रन्थार्थ हिंसितुं बुद्धि, यतोऽकाष्टी परस्परम् ॥११८४॥ अर्थ - एकरथ्या ग्राम में दो सहोदर रहते थे। परिग्रह के लिए उन्होंने एक दूसरे को मारने की बुद्धि की थी। इससे सिद्ध होता है कि यह परिग्रह महाभयरूप है ।।११८४ ।। *दो सगे भाइयों की कथा * दशार्ण देशमें एकरथ नामका नगर था | उसमें दो सगे भाई रहते थे। दुर्भाग्यवश उनके दरिद्रता आयी। दोनों अपने मामाके समीप गये। उन्होंने आठ रत्न दिये और कहा कि इनसे आप अपनी आजीविका का साधन बनाओ। दोनों भाई धनदेव और धनमित्र अपने नगर की ओर आ रहे थे। मार्गमें रत्नोंको अकेले ही हड़पने की दुर्भावना से एक दूसरे को मार डालने का विचार आया, किन्तु कुछ दूर जानेपर सुबुद्धि आयी और बुरे विचार एक दूसरेको बताकर उन्होंने रत्नों को नदी में फेंक दिया। उन रत्नों को बड़ी मछलीने निगल लिया। धीवरने जब उस मछली को चीरा तो उसके पेटसे वे रत्न निकले। किन्तु धीवर उनकी कीमत नहीं जानता था अत: बाजारमें बेचने आया, कर्म-संयोग वश उन धनदेव धनपुत्र की माताने उनको खरीदा, जब उसे 'ये रत्न हैं, ऐसा मालूम हुआ तो उसके लोभमें उसने पुत्रोंको मारना चाहा, फिर पश्चात्ताप कर उसने उन रत्नोंको अपनी लड़की धनमित्राको दिया, रत्नोंको पाते ही उसके भी भाव सबको मारने के हुए। फिर सँभल कर माताको मनका बुरा भाव बताया। सबने बैठकर विचार किया कि अहो ! यह रत्न आदि धन परिग्रह अत्यंत दुःखप्रद है, यह संसार असार है, धिक् है मोह माया को। ऐसा विचार कर वे सभी दीक्षित हो गये। इस प्रकार परिग्रहके ममत्वसे भाइयों की बुद्धि भ्रष्ट हुई थी। तस्कराणां भयं जातमन्योन्य-द्रविणार्थिनाम् । मद्ये मांसे विषं घोरं, यतः संयोज्य मारिताः ॥११८५ ॥ अर्थ - एक दूसरे के हिस्से का धन ग्रहण करने की इच्छा वाले चोरों को आपस में भय उत्पन्न हुआ और उन्होंने शराब तथा मांस में घोर विष मिलाकर एक दूसरे को मार डाला।।११८५।। चोरों की कथा * धनदत्त, धनमित्र आदि बहुतसे सेठ-पुत्र व्यापारके लिए बहुतसा धन लेकर एकवनसे जा रहे थे । मार्गमें
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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