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________________ मरणकण्डिका - ३२८ है। उनके नाम इस प्रकार हैं- १. अचेलकत्व, २, उद्दिष्ट शय्या-त्याग, ३. उद्दिष्ट आहार त्याग, ४. राजपिंड त्याग, ५. कृतिकर्म प्रवृत्त, ६, व्रतारोपण अर्हत्व, ७. ज्येष्टत्व, ८. प्रतिक्रम, ९. मासैक-वासिता और १०. पर्या अर्थात् चातुर्मास में विहार नहीं करना । प्रश्न - आचेलक्य का क्या अर्थ है ? उत्तर - आचेलक्य शब्द का निरुक्ति अर्थ है “न चेलं इति अचेल, चेलग्रहण परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकल-धन-धान्यादि परिग्रह-त्यागः गृहयते" अर्थात् चेल शब्द में वस्त्रत्याग उपलक्षण रूप है, अत: इस शब्द के अर्थ के साथ अन्य उसके समान धन-धान्यादि सर्व प्रकार के परिग्रहत्याग करने का उपदेश ग्राह्य है। प्रश्न - उपलक्षण का क्या भाव है ? उत्तर - जिस उक्त अर्थात् कहे हुए एक शब्द के साथ उसके ही समान अर्थ वाले अन्य सभी का ग्रहण स्वतः हो जाता है, उसे उपलक्षण कहते हैं। जैसे किसी ने कहा - "काकेभ्यो रक्षता सर्पिः" अर्थात् “कौवे से धी की रक्षा करो"। इस वाक्य में कौवा शब्द उपलक्षण है क्योंकि जो घी की रक्षा चाहता है उसका भाव है कि कौवा एवं कौवे के सदृश बिल्ली, कुत्ता आदि जो-जो प्राणी घी को नष्ट करने वाले हैं उन सभी से घी की रक्षा करो। इस प्रकार चेल अर्थात् वस्त्र शब्द यहाँ उपलक्षण है। प्रश्न - श्लोक में जो "तालप्रलम्बसूत्रवद्" पद आया है उसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर - साधुसमाज की योग्य चर्या दर्शाने वाले कल्पग्रन्थ में एक सूत्र आया है कि "ताल पलंब ण कप्पदि" अर्थात् "साधु को ताल प्रलम्ब वनस्पति नहीं खानी चाहिए"। सूत्रगत 'ताल' शब्द का तो मात्र इतना अर्थ है कि ताड़वृक्ष नामक वनस्पति नहीं खानी चाहिए, किन्तु मात्र इतना अर्थ ग्राह्य नहीं है, कारण कि इस सूत्र में 'आदि' शब्द का लोप हो गया है और यह सूत्र देशामर्शक भी है, अतः इस सूत्र से भी यही ग्राहय होगा कि साधु को ताड़ादि वनस्पतियों का भक्षण नहीं करना चाहिए । अर्थात् किसी भी प्रकार के हरित तृण, पत्ते, लता बेल, गुच्छे, फूल एवं स्कन्धादि नहीं खाने चाहिए। मूल प्रलम्ब और अन प्रलम्ब के भेद से प्रलम्ब दो प्रकार का है। जो भूमि के भीतर ही रहते हैं ऐसे कन्दमूल आदि को मूल प्रलम्ब कहते हैं और अंकुर, प्रवाल, पत्ते, फूल एवं फल आदि वनस्पति अग्र प्रलम्ब प्रश्न - देशामर्शक किसे कहते हैं ? उत्तर - जिस सूत्र में प्रयोजनीय वस्तु का मात्र एकांश कहा जाता है किन्तु वह एकांश ही वस्तु के सर्वांश को ध्वनित करता है उसे देशामर्शक कहते हैं। यहाँ भी 'चेल' शब्द सर्व परिग्रह के त्याग को ध्वनित करता है। अर्थात् अपरिग्रह महाव्रत में वस्त्र सहित बाह्याभ्यन्तर सर्व परिग्रह का त्याग करना आवश्यक है। आचार्य का भी यही अभिमत है चेल-मात्र-परित्यागी, शेष-समी न संयतः। यतो मतमचेलत्वं, सर्व ग्रन्थोज्झनं ततः ।।११८० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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