SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ४३० अर्थ - इस प्रकार तप का माहात्म्य सुनकर मोहरूपी अन्धकार समूह को नष्ट कर देने वाले निर्यापकाचार्यरूपी सूर्य के वचनरूपी किरण-समूह से क्षपक का मुख कमल विकसित/प्रफुल्लित हो जाता है ॥१५५६॥ प्रश्न - क्या क्षपक का मुख उदास रहता है ? उत्तर - क्षपक उदास नहीं रहता, फिर भूख, प्यास या रोगादि की पीड़ा से अथवा अनशनादि तप के से श्रम से मुखाकृति पर कुछ विरूपता या थकावटजन्य ग्लानि आ जाती है तो गुरुमुख से प्रसारित शिक्षा-रूपी वचन-किरणों से वह विरूपता नष्ट हो जाती है और उसमें से रत्नत्रय की प्रीतिरूपी पुष्परस झरने लगता है, तथा चित्त प्रसन्न एवं हृदय आहलादित हो उठता है। सूरे ति प्रभावेण, तत्सदो मुख-पङ्कजैः। सरोवरमिवाकीर्णं, पौर्विकसितैः रवैः ।।१५५७।। __ अर्थ - सूर्य की किरणों से विकसित हुए कमलों के द्वारा भरा हुआ सरोवर जैसे सुशोभित होता है, वैसे ही आचार्य के वचन प्रभाव से मुनियों के विकसित हुए मुखरूपी कमलों द्वारा वह परिषद् अत्यन्त सुशोभित होती है॥१५५७ ॥ प्राप्तोपदेश-पीयूषं, क्षपकोऽजनि निर्वृतः। समस्त-श्रम-विध्वंसि, तृषार्त इव पानकम् ।।१५५८ ॥ अर्थ - जैसे प्यास से पीड़ित पुरुष समस्त श्रम और प्यास को शमन करने वाले पेय को प्राप्त कर प्रसन्न होता है, वैसे ही क्षपक आचार्य श्री के उपदेश रूपी धर्मामृत को पीकर सुखी एवं आनन्दित होता है ।।१५५८ ।। क्षपक द्वारा आचार्य की वन्दना एवं विनय पूर्वक प्रज्ञप्ति ततोऽमुं शासनं श्रव्यं, श्रुत्वा संविग्न-मानसः। उत्थाय वन्दते सूरिं, स नम्री-कृत-विग्रहः।।१५५९।। अर्थ - तदनन्तर कर्णप्रिय वचनों द्वारा जिनशासन के अथवा तप धर्म के माहात्म्य को सुनकर वह क्षपक वैराग्य से भर जाता है अत: संस्तर से उठकर बैठ जाता है, पश्चात् सर्वांगों को अति ननीभूत कर श्रद्धा एवं विनय पूर्वक आचार्यश्री की वन्दना करता है ।।१५५९॥ तवेमा देशनां कृत्वा, शेषामिव शिरस्यहम् । यथोक्तमाचरिष्यामि, पराजित-परीषहः ॥१५६० ।। अर्थ - क्षपक कहता है कि हे गुरुदेव ! आपके द्वारा दिये हुए इस सम्यग्ज्ञानामृत रूप उपदेश को मैं शेषाक्षत के सदृश मस्तक पर धारण कर तथा परीषहों को जीत कर वैसा ही आचरण करूँगा जैसा कि आपने मार्गदर्शन किया है॥१५६० ॥ यथा मे निस्तरत्यात्मा, तुष्टिरस्ति यथा तव । सङ्घस्य सर्वस्य यथा, तवास्ति सफल: श्रमः॥१५६१॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy