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________________ ! I I | 18 मरणकण्डिका - २३७ प्रश्न क्षपक के मरणकाल में भी क्या मिथ्यात्व त्याग का उपदेश देना योग्य है ? उत्तर - इस जीव को अनादिकाल से इस मिथ्यात्व का ही स्वाद आ रहा था, इसलिए यह सम्यक्त्व में नहीं रम पाता, अनन्तकाल से मिथ्यात्व का अभ्यास होने से उसका त्याग करना अत्यधिक कठिन है। जैसे सर्प अपने चिर-परिचित बिल में निवारण करने पर भी प्रवेश कर जाता है, वैसे इस जीव को भी सम्यक्त्व में दृढ़ता लाने के लिए बार-बार मिथ्यात्वत्याग का उपदेश देना अयोग्य नहीं है। विषाग्नि- कृष्णसर्पाद्याः कुर्वन्त्येकत्र जन्मनि । मिथ्यात्वमावहेद् दोषं, भवानां कोटि-कोटिषु ।।७६१ ।। अर्थ विष, अग्नि और काला सर्पादि एक जन्म में ही दोष उत्पन्न करते हैं, किन्तु मिथ्यात्व कोटिकोटि भवों तक दोष करता है अर्थात् दुख देता है ।।७६१ ।। विद्धो मिथ्यात्व - शल्येन, तीव्रां प्राप्नोति वेदनाम् । काण्डेनेव विषाक्तेन, कानने निःप्रतिक्रियः ।।७६२ ।। अर्थ - जैसे जंगल में विषैले काँटे से विद्ध मनुष्य का कोई प्रतिकार नहीं होता अर्थात् वह मरता ही है; वैसे मिथ्यात्व नामक शल्य से बधे गये जीव तीव्र वेदना भोगते हैं अर्थात् तत्त्वों में अश्रद्धान करने से संसारभ्रमण में असह्य वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं । ७६२ ॥ मिथ्यात्षोत्कर्षतः सङ्घ श्री - संज्ञस्य विलोचने । गलिते प्राप्तकालोऽपि यातोऽसौ दीर्घ-संसृतिम् । । ७६३ ।। अर्थ- संघश्री नामक राजमन्त्री के दोनों नेत्र मिध्यात्व के तीव्र उत्कर्ष से तत्काल फूट गये और वह मरण पश्चात् भी दीर्घसंसारी हुआ ||७६३ ॥ * संघश्री मन्त्री की कथा आन्ध्र देश के कनकपुर नगर में सम्यक्त्व गुण से विभूषित राजा धनदत्त राज्य करते थे। उनका श्री नामका मन्त्री बौद्धधर्मावलम्बी था। एक दिन राजा और मन्त्री दोनों महल की छत पर स्थित थे। वहाँ उन्होंने चारणऋद्धिधारी युगल मुनिराजोंको जाते हुए देखा। राजा ने उसी समय उठकर उन्हें नमस्कार किया और वहीं विराजमान होकर धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की। मुनिगणों ने राजा की विनय स्वीकार कर धर्मोपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर मन्त्री ने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये और बौद्ध गुरुओंके पास जाना छोड़ दिया। किसी एक दिन बौद्ध गुरु ने मन्त्री को बुलाया। मन्त्री गया, किन्तु बिना नमस्कार किये ही बैठ गया। भिक्षु ने इसका कारण पूछा, तब संघश्री ने श्रावक के व्रत आदि लेनेकी सम्पूर्ण घटना सुना । बौद्धगुरु जैनधर्मके प्रति ईर्षासे जल उठा और बोला- “मन्त्री ! तुम ठगाये गये, भला आप स्वयं विचार करो कि मनुष्य आकाश में कैसे चल सकता है ? ज्ञात होता है कि राजा ने कोई षड्यन्त्र रचकर तुम्हें जैनधर्म स्वीकार कराया है।" भिक्षुक की बात सुनकर अस्थिर बुद्धि पापात्मा मन्त्री ने जैनधर्म छोड़ दिया। एक दिन राजा ने अपने दरबार में जैनधर्म की महानता और चारणऋद्धिधारी मुनिराजों के चमत्कार सुनाये, और उस घटना को सुनानेका अनुरोध मन्त्री से भी किया।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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