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________________ मरणकण्डिका - २३६ प्रश्न - गुणयुक्त बुद्धियाँ कितनी हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? । उत्तर - सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊहा, अपोह और तत्त्वाभिनिवेश के भेद से गुणयुक्त बुद्धि आठ प्रकार की होता है। धर्म एव सप्ततत्त्वादि सुनने की इच्छा होना सुश्रुषा बुद्धि है। गुरु या धर्मात्मा जनों के पास जाकर धर्म सुनना श्रवण बुद्धि है। सुनते समय ही उस उपदेश को ग्रहण करना ग्रहण बुद्धि है। ग्रहण किया हुआ धर्मोपदेश हृदय में स्थिर रखना धारण बुद्धि है। ज्ञात तत्त्व को विशेष रूप से जानना विज्ञान बुद्धि है। नय एवं निक्षेप आदि द्वारा तत्त्वों की परीक्षा करना ऊहा बुद्धि है। अतत्त्व अर्थात् हेय तत्त्व से हटना अपोह बुद्धि है, और जिनेन्द्र उपदिष्ट तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धान रखना तत्त्वाभिनिवेश बुद्धि है। प्रश्न - असंयमादि से भी संसारवृद्धि होती है फिर मात्र मिथ्यात्व को ही प्रथम स्थान क्यों दिया गया उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये बन्ध के कारण हैं। बन्ध के इन कारणों में मिथ्यात्व को प्रथम स्थान दिया गया है और बन्ध पूर्वक संसार होता है अत: संसार का मूल कारण मिथ्यात्व कहा गया है। पिब सम्यक्त्वपीयूष, मिथ्यात्व-विषमुत्सृज। निधेहि भक्तितश्चिते, नमस्कारमनारतम् ॥७५७ ॥ अर्थ - आचार्य कहते हैं कि हे यते ! तुम मिथ्यात्वरूपी विष को छोड़कर सम्यक्त्वरूपी अमृत का पान करो। ऐसा करने से तुम्हारे चित्त में अर्हन्तादि की भक्ति निहित हो जायेगी और पंचपरमेष्ठी के नमस्कार में मन तल्लीन हो जायेगा ।।७५७॥ मिथ्यात्वमोहिताः सत्यमसत्यं जानते जनाः। कुरङ्गा इव तृष्णार्ताः, सलिलं मृगतृष्णिकाम् ।।७५८॥ अर्थ - (सूर्य की किरणें पृथ्वी की उष्मा से मिल कर जो जल का भ्रम उत्पन्न कर देती हैं, उसे मृगतृष्णा कहते हैं) जैसे प्यास से पीड़ित मृग उस मरीचिका को ही जल मान बैठता है, वैसे ही मिथ्यात्व से मोहित जीव असत्य तत्त्व को ही सत्य मान बैठते हैं ।।७५८॥ मिथ्यात्वमोहतो जन्तोवर कनक-मोहनम्। . दत्ते मृत्यु-सहस्राणि, प्रथमं न परं पुनः ।।७५९ ।। अर्थ - मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न मोह की अपेक्षा धतूरे के सेवन से उत्पन्न मोह अर्थात् मूर्छा उत्तम है; क्योंकि पहले से यानी मिथ्यात्व से उत्पन्न मोह हज़ारों भवों में मृत्यु देता है, जबकि दूसरे से अर्थात् धतूरा पीने से उत्पन्न हुआ मोह भाव केवल एक बार मृत्यु देता है ।।७५९।।। अनादिकाल-मिथ्यात्व-भावितो न प्रवर्तते । सम्यक्त्वेऽयं यतस्तेन, प्रयत्नोऽत्र विधीयते ।।७६० ।। अर्थ - अनादिकाल से चले आये इस मिथ्यात्वभाव से भावित जीव सम्यक्त्व में प्रवृत्ति नहीं करता। अर्थात् सम्यक्त्व में रत नहीं होता, इसलिए सम्यक्त्व में प्रयत्न करना ही चाहिए ।।७६० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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