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________________ मरणकण्डिका - १३९ अर्थ - सत्पुरुष दूसरों के दोष सुन कर मन में लज्जित होता है, वह उन्हें प्रगट नहीं करता प्रत्युत लोकापवाद के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के सदृश छिपाता है ।।३८४ ।। स्वल्पोऽप्यन्य-गुणो धन्यं, तैलबिन्दुरिवोदके। विवर्धते तमासाद्य, पर-दोषं न वक्ति सः ॥३८५ ॥ अर्थ - जैसे तेल की बूंद, जल के आश्रय से फैल कर महान् हो जाती है, वैसे ही दूसरों का छोटा सा भी गुण सत्पुरुष को पाकर धन्य हो जाता है अर्थात् महान् हो जाता है अर्थात् लोकप्रसिद्धि में आ जाता है। ऐसे अल्पगुण की भी प्रशंसा करनेवाला सज्जन पुरुष पर के दोषों को कभी नहीं कहता ॥३८५।। सदुपदेश का सार ग्राह्यस्तथोपदेशोऽयं, सर्यो युष्माकमजसा। यथा गुणकृता कीर्तिलॊके भ्रमति निर्मला ।।३८६ ।। अर्थ - हे मुनिजन ! अब तुम सबको भली प्रकार से उपर्युक्त सर्व-उपदेश का सार इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिससे तुम्हारे गुणों से उत्पन्न हुई निर्मल कीर्ति इस लोक में सर्वत्र फैले ॥३८६ ।। उस कीर्ति का स्वरूप अनन्यतापकोऽखण्ड-ब्रह्मचर्यो बहुश्रुतः। शान्तो दृढचारित्रोऽयमेषा धन्यस्य घोषणा ॥३८७ ॥ अर्थ - उस कीर्ति का विस्तार इस प्रकार हो कि-अहो ! इस संघ के साधुजन किसी को भी सन्ताए नहीं देते, ये बहुत शान्त हैं, इनका ब्रह्मचर्य अखण्ड है, ये बहुत ज्ञानी हैं और चारित्र में भी अति दृढ़ हैं। ये धन्य हैं, धन्य हैं ।।३८७।। शिष्य समुदाय की प्रतिक्रिया इदं नो मङ्गलं बाढमेष मुक्त्वा गणोऽप्यसौ। तोष्यमाणो गुणैः सूरेरानन्दाश्रु विमुञ्चति ॥३८८ ॥ अर्थ - यह सर्व उपदेश हम लोगों के लिए मंगलभूत है अर्थात् श्रेष्ठ है और ग्राह्य है अर्थात् 'हमें स्वीकार है' ऐसा कह कर सर्वसंघ आचार्यश्री के गुणों से सन्तुष्टता को प्राप्त होता हुआ आनन्द के आँसू गिराता है ।।३८८ ।। प्रश्न - गुरु के किन गुणों से संघ सन्तुष्ट हुआ और संघ ने आँसू क्यों गिराये ? उत्तर - आचार्यश्री ने अपने आचार्यत्व काल में सर्वसंघ को पंचाचार में संलग्न रख कर बहुत उपकार किया है। अब समाधि के इच्छुक वे आचार्य, अपने समान गुणज्ञ आचार्य को सर्वसंघ सौंप कर जाना चाहते हैं। जाने के पूर्व उन्होंने पुनः अपने संघ को पूर्वोक्त प्रकार से विस्तारपूर्वक उपदेश दिया। गुरु के इस प्रकार के स्व-परोपकारक अत्यन्त शुद्ध रत्नत्रय का वर्धन करनेवाले वचन सुनकर संघस्थ मोक्षार्थियों के हृदय सन्तुष्टता को प्राप्त होकर प्रफुल्लित हो उठे और हर्षातिरेक से उनके आंसू गिरने लगे। उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक गुरु की सब आज्ञा शिरोधार्य कर कृतज्ञता प्रगट की।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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