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________________ मरणकण्डिका - १४० आराधनाकांक्षी आचार्य के प्रति शिष्यों की कृतज्ञता अयं नोऽनुग्रहोऽपूर्वो, यत्स्वाङ्गमिव पालिताः। सारणा-वारणादेशा, लभ्यन्ते पुण्यभागिभिः ।।३८९॥ अर्थ - हे भगवन् ! हम लोगों के ऊपर आपका यह अपूर्व अनुग्रह है, जो आपने अपने शरीराङ्गों के सदृश हमारा पालन किया है। यह करो', 'यह मत करो' तथा 'यह करना ही है इत्यादि गुरु की शिक्षा भाग्यशाली जीवों को ही प्राप्त होती है।।३८९॥ प्रश्न - आचार्य सारण, वारण और आदेशरूप शिक्षा क्यों देते हैं और इनका क्या अर्थ है? उत्तर - लौकिकज्ञान में अग्नणी भी मनुष्य जब दीक्षा लेता है तब मोक्षमार्ग अर्थात् साधुमार्ग के अनुष्ठान में अनभिज्ञ ही रहता है। उस समय गुरु सारण, वारण और आदेशादि रूप शिक्षा देकर उसे अपने अनुष्ठान में निष्णात कर देते हैं। कर्तव्य का उपदेश देना कि आपको इस-इस प्रकार की क्रिया करना अथवा अज्ञात क्रियाएँ बताना सारणा है। अमुक-अमुक कार्य अर्थात् इस-इस प्रकार के अनुष्ठान या समाचर्या नहीं करना, यह वारणा है और अपने-अपने कार्य के नियम का प्रतिपादन करना, जैसे यतिगण उद्दिष्टाहार ग्रहण न करें, यह आदेश है। क्षमयामो वदं तद् यद्, रागाजान-प्रमादतः । आदेशं ददतामाज्ञा, भवतां प्रतिकूलिता।।३९०॥ अर्थ - आपके द्वारा हितकारी आज्ञा एवं उपदेश दिये जाने पर हमने रागवश, अज्ञानतावश या प्रमादवश उसके प्रतिकूल जो-जो आचरण किया है उसके लिए हे आचार्यदेव ! हम सब क्षमायाचना करते हैं, आप हमें क्षमा प्रदान कीजिए ।।३९० ।। लब्ध-सिद्धिपथा जाताः, सचित्त-श्रोत्र-चक्षुषः। युष्मद्वियोगतो भूयो, भविष्यामस्तथाविधाः ।।३९१ ॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपने हमें लब्धसिद्धिपथ वाला किया है। आपने हमें हृदय, कर्ण और नेत्र दिये हैं। आप अब समाधि के सम्मुख हैं, आपके वियोग से अब हम दिग्भ्रमित होकर भविष्य में पुन: वैसे ही हो जावेंगे ||३९१॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है, आचार्यश्री ने हृदय आदि सब कैसे क्या दिये हैं? उत्तर - दीक्षा के पूर्व व्यक्ति संसारमार्गी होता है और उसका मन तथा कर्णादि इन्द्रियाँ विषयों की ओर संलग्न रहती हैं, अत: शिष्यगण अपने परमोपकारी गुरु से कह रहे हैं कि-हे प्रभो! हम संसारमार्ग में निमग्न थे। आपने दीक्षा देकर हमें मोक्षमार्ग प्राप्त कराया है, हम पहले अज्ञानी थे, विचारशून्य थे, अत: हृदयशून्य थे क्योंकि हृदय से होनेवाले धर्मलाभ को नहीं जानते थे। आपने हमें विचारशील बनाया, अर्थात् आपके उपदेश से हमारा हृदय हिताहित का विवेक करने में समर्थ हो गया है, अत: आपने ही हमें हृदययुक्त किया था। पहले हमारे कर्ण, कर्ण ही नहीं थे क्योंकि वे गुरु का उपदेश नहीं सुनते थे, हमारे नेत्र भी नेत्र नहीं थे क्योंकि वे स्वाध्याय नहीं करते
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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