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________________ . मरणकण्डिका - १३८ अर्थ - हे यतिजन ! तुम सब कभी पंचपरमेष्ठियों की आसादना नहीं करना, क्योंकि उस आसादना को करनेवाला जीव दुरन्त संसारी बन जाता है ।।३७९ ॥ त्यजतासंयम त्रेधा, मुक्ति-लक्ष्मी जिघृक्षवः । सा दूरीक्रियते तेन, व्याधिनेव सुखासिका ।।३८० ।। अर्थ - मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करने के इच्छुक हे मुनिगण ! तुम सब मन, वचन और काय से असंयम का त्याग करो, क्योंकि जैसे व्याधिग्रस्त व्यक्ति का सुखपूर्वक बैठना नष्ट हो जाता है, वैसे ही असंयम से मोक्ष दूर हो जाता है ।।३८० ।। मा ग्रहीषु परीवाद, स्वसध-परसङ्घयोः । संसारो वर्धतेऽनेन, सलिलेनेव पादपः ॥३८१ ।। अर्थ - भो मुनिगण ! जैसे जल से वृक्ष वृद्धिंगत होता है, वैसे ही अपवाद अर्थात् निन्दा करने से संसारपरिभ्रमण बढ़ता है अत: आप सब कभी भी अपने संघ की या पर-संघ की निन्दा नहीं करना ||३८१॥ शोक-द्वेषासुखायास-वैर-दौर्भाग्य-भीतयः । विशिष्टानिष्टया पुंसां, जन्यन्ते परनिन्दया ||३८२ ।। अर्थ - पर-निन्दा शोक, द्वेष, दुख, आयास और भय को उत्पन्न करती है, वैर को बढ़ाती है, दुर्भाग्य को लाती है और सज्जन पुरुषों को अप्रिय है ।।३८२ ॥ उत्थापयिषरात्मानं, परनिन्दा विधाय यः। अपरेणौषधे पीते, स निरोगत्वमिच्छति ।।३८३॥ अर्थ - जो मनुष्य पर की निन्दा करके अपना उत्थान या अपने को गुणज्ञ मानता है वह मानों, दूसरों के द्वारा कड़वी औषधि पान कर लेने पर अपनी नीरोगता चाहता है ।।३८३ ॥ प्रश्न - ‘अन्य में अमुक गुण नहीं हैं ऐसा कहने से ही सिद्ध हो जाता है कि वे गुण मेरे में हैं, ऐसा कहने में क्या दोष है ? उत्तर - 'अमुक में कोई गुण नहीं है। ऐसा कहना निन्दा ही है। इस प्रकार की पर-निन्दा से अपने को गुणवान मानना यह उल्टे मार्ग पर चल कर स्वस्थान पर पहुँचने की कल्पना के सदृश है, क्योंकि जो स्वस्थान की दिशा में गमन करेगा वही वहाँ पहुँचेगा, या जो औषधि खायेगा वही नीरोग होगा, उसी प्रकार जो गुण प्राप्त कर लेगा वही गुणी होगा। योऽन्यस्य दोषमाकर्ण्य, चित्ते जिहेति सज्जनः । परापवादतो भीतः, स्वदोषमिव रक्षति ।।३८४॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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