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________________ मरणकण्डिका - ३३९ रक्षण-स्थापनादीनि, कुर्वाणोऽर्थस्य सर्वदा।। निरस्ताध्ययनो ध्यानं, व्याक्षिप्त: कुरुते कथम् ।।१२२१ ॥ अर्थ - सर्वदा परिग्रह के रक्षण में, रखने उहाले एवं साः -साहार में लोगहने के कारण प्रमुख का मन उसी में आकुल-व्याकुल रहता है अत: उसका स्वाध्याय छूट जाता है, और जो स्वाध्याय ही नहीं करता वह ध्यान कैसे कर सकता है॥१२२१ ।। प्रश्न - परिग्रहवान् यदि स्वाध्याय एवं ध्यान नहीं भी कर पाता, तो उसकी क्या हानि है ? उत्तर - परिग्रह में संसक्त मनुष्य का मन नियमतः विक्षिप्त एवं चंचल रहता है, अतः परिग्रह स्वाध्याय एवं ध्यान नामक तप में विघ्न उत्पन्न करता है, तथा स्वाध्याय और ध्यान के बिना संवर और निर्जरा नहीं होते, संवर-निर्जरा के बिना कर्मों का नाश नहीं होता और कर्मों के नाश बिना संसार-भ्रमण के दुखों से छुटकारा नहीं हो सकता। यही जीव की सबसे बड़ी हानि है। अर्थ-प्रसक्त-चित्तोऽस्ति, नि:स्वो बहुषु जन्मसु। ग्रासार्थमपि कर्माणि, निन्द्यानि कुरुते सदा ॥१२२२॥ अर्थ - जिसका चित्त सदैव परिग्रह में आसक्त रहता है, वह भव-भव में दरिद्र होता है। एक-एक ग्रास की भीख मांगता है, तथा भोजन-प्राप्ति की इच्छा से जूते बेचना, स्वामी के जूते साफ करना, पालकी उठाना, बोझा ढोना, पगचम्पी करना एवं टट्टी-पेशाब आदि साफ करना, इत्यादि नीच कार्य भी उसे करने पड़ते हैं ||१२२२॥ लभते यातनाश्चित्रा, ग्रन्थ-हेतून्भवान्तरे। संक्लिश्यत्याशया ग्रस्तो, हा-हा-भूतोऽर्थ-लुब्ध-धीः ।।१२२३॥ अर्थ - धनलुब्ध बुद्धि वाला मनुष्य भवान्तरों में भी धन के लिए अनेक यातनाओं को प्राप्त होता है। तृष्णा से ग्रसित हो धन के लिए हाहाकार करता है और धन की आशा से ग्रस्त हुआ सदा ही संक्लेश करता रहता है।।१२२३॥ यहाँ तक परिग्रह-संचय के दोष कहे। अब परिग्रहत्याग के गुणों का प्रतिपादन करते हैं अमीभिरखिलैषैिर्ग्रन्थ-त्यागी विमुच्यते। भूरिभिस्तद्विपक्षश्च, निलयी-क्रियते गुणैः ॥१२२४॥ अर्थ - परिग्रहत्यागी उपर्युक्त सर्व दोषों से छूट जाता है और उन दोषों के विपरीत वह अनेक गुणों का निलय अर्थात् स्थान बन जाता है ।।१२२४ ।। प्रश्न - दोषों के विपक्षी गुण कौन-कौन से हैं ? उत्तर - परिग्रहासक्त में कृपणता, निन्दा,पाप-संचय, गृद्धता एवं दरिद्रतादि दोष होते हैं और परिग्रहत्यागी में इन दोषों के विपरीत उदारता, कीर्ति, पुण्यसंचय, निर्लोभता, निश्चिन्तता, निस्पृहता एवं सम्पन्नतादि गुण होते हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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