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________________ मरणकण्डिका- ३३८ अर्थ - वस्त्रादि सर्व परिग्रह चारों ओर से सम्मूर्च्छन जीवों से संसक्त होता है और नाना प्रकार के नये जीव भी उस परिग्रह में उत्पन्न होते रहते हैं ।। १२९६ ॥ बन्धने छोटने छंदने भेदनं, पाटने धूनने चालने शोषणे । क्षाने स्वीकृत क्षेपणेऽर्थस्य पीड़ा परा जायते देहिनाम् ।।१२१७ ॥ अर्थ - परिग्रह को बाँधने, छोड़ने, छेदने, भेदने, उखाड़ने, हिलाने, छानने, सुखाने, वेष्टित करने, धोने, पहनने एवं फेंकने आदि की क्रियाएँ करने में परिग्रहों में रहने वाले और उसके आस-पास स्थित जीवों को अत्यधिक पीड़ा होती है ॥ १२१७ ॥ तेभ्यो निरसने तेषां ध्रुवा योनि - वियोजना | दोषा मर्दन -सङ्घट्ट-विताप - मरणादय: ।। १२१८ ॥ अर्थ - परिग्रह अर्थात् वस्त्रादि में से जब उन जीवों को अलग किया जाता है तब भी वही दोष लगते हैं, क्योंकि वस्त्रों आदि से उन जन्तुओं को करते समय उनका मर्दन, संघटन एवं परितापन होता है और योनि स्थान छूट जाने से मरण भी हो जाता है । १२१८ ॥ सचित्ता अङ्गिनो घ्नन्ति, स्वयं संसक्त-मानसाः । गृहीतुर्जायते पापं तनिमित्तमसंशयम् ॥ १२१९ ॥ अर्थ - परिग्रह में आसक्त मन वाले दासी दासादि सचित परिग्रह स्वयं जीवों का घात करते हैं, तथा उन्हें खेती आदि कार्यों में लगाये रहने से वे जो पापाचरण करते हैं उसका पाप भी स्वामी को नियमतः लगता है॥१२१९ ।। प्रश्न इस श्लोक का क्या आशय है ? - उत्तर इस श्लोक का यह आशय कि अचित्त परिग्रह से मात्र उसके स्वामी को पापबन्ध होता हैं, किन्तु सचित्त परिग्रह से दोनों को पापबन्ध होता है। यथा जो दास-दासी खेती आदि कार्यों में नियुक्त किये जाते हैं वे स्वयं भी परिग्रह में आसक्त होते हैं और अविवेकपूर्ण कार्य करते हैं अतः जीवों का घात भी बहुत होता है, इसलिए उनको कृतजन्य कर्मबन्ध होता है, तथा जो स्वामी उन्हें नियुक्त करता है उसे कारितजन्य कर्मबन्ध होता है । - परिग्रह से इन्द्रियजन्य अभिलाषा उत्पन्न होती है देहस्याक्ष-मयत्वेन, देह-सौख्याय गृण्हतः | अक्ष-सौख्याभिलाषोऽस्ति संकलस्य परिग्रहः ।। १२२० ।। अर्थ - शरीर इन्द्रियमय है, क्योंकि यह स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियों का अभिन्नभूत आधार है। वर्षा, हवा एवं धूप आदि अनिष्ट स्पर्श से बचाव के लिए एवं इन्द्रियजन्य सुख के लिए ही मनुष्य वस्त्रादि ग्रहण करता है । वस्त्रालंकार आदि से शरीर को विभूषित कर मनुष्य दूसरे में अभिलाषा उत्पन्न करता है, पश्चात् शरीर संसर्ग से उत्पन्न अनुराग का इच्छुक होकर उसका सेवन करता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सर्व परिग्रह अभिलाषा उत्पन्न करता है ।। १२२० ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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