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________________ मरणकण्डिका-४५५ जिस वन में तलवार की धार सदृश पत्ते वाले वृक्ष होते हैं उसे असिपत्र वन कहते हैं। ये वन भी विक्रियारूप हैं। अन्य नारकियों के भय से भयभीत नये नारकी घबराकर ऐसे कूट-शाल्मली वृक्षों पर चढ़कर दुख पाते हैं। नारकियों द्वारा अथवा असुरकुमार देवों की विक्रिया द्वारा रचे गये विचित्र आयुध रूप पत्रों से युक्त होते हैं। उन आयुध सदृश पत्रों के गिरने पर नारकियों का सर्वांग छिद जाता है। उन वृक्षों पर बैठे हुए गिद्ध, कंक एवं काक पक्षीरूपधारी नारकी अपनी वज्रमयी चोंचों से उन्हें नोचते हैं, तीक्ष्ण आरे के सदृश पंखों से प्रहार करते हैं और अत्यन्त तीक्ष्ण एवं कठोर चरणरूपी अंकुशों से मारते हैं। हे क्षपकराज ! ऐसे दुख तुमने अनेक बार भोगे हैं। असुरैर्वैतरण्यां च, प्रापितो निर्घणाशयः । कदम्ब-वालुका-पुञ्ज, गाढमाना यदा सृतः॥१६४६॥ अर्थ - दे क्षपक ! निर्दय अपुरणों द्वारा वैतरणी में तुम अनेक बार डुबोये गये हो और कदम्ब पुष्प की आकृति वाले बालू के पुंज पर बलात् सुलाये गये हो, उस समय के दुख स्मरण करो।।१६४६॥ प्रश्न - वैतरणी नदी का क्या स्वरूप है और इसके माध्यम से नारकी जीव किस-किस प्रकार के दुख भोगते हैं ? उत्तर - श्याम सबल नामक असुरकुमारों की पृथक् विक्रिया एवं नारकियों की अपृथक् विक्रिया के द्वारा वैतरणी नदियों का उद्गम होता है, वे नदियाँ रंगीन तरंगों से व्याप्त और अगाध नीले जल से भरी होती हैं, विषय-सुख-सेवन की तरह तृष्णा की परम्परा को बढ़ाने वाली होती हैं, संसार के सदृश उन्हें पार करना कठिन होता है, आशा के समान विशाल होती हैं और कर्म पुद्गलों के स्कन्धों के समूह के समान अनेक विपत्तियों को लाने वाली होती हैं। जब प्यास से व्याकुल नारकी जल की खोज में दौड़ते हैं, उनकी आँखें दीन हो जाती हैं, कण्ठ और तालू सूख जाता है तब दूर से ही उन नदियों को देखकर उनकी उत्कण्ठा बढ़ जाती है और उन्हें विश्वास हो जाता है कि 'अब हम जी गये', ऐसा मानते हुए वे दौड़कर नदी में प्रवेश करते हैं। प्रवेश करते ही वे आतुरता पूर्वक हाधों की अंजुलि से पिघले हुए तांबे के सदृश वह जल पीते हैं। वह जल कठोर वचनों के समान हृदय को जलाने वाला होता है तब वे चीत्कार करते हैं कि "अरे ! हम ठगाये गये हैं"। उसी क्षण तलवार की धार सदृश और कठोर वायु से प्रेरित नदी के जल की लहरें उनके हाथ-पैरों को काटती हुई निकल जाती हैं तब कालकूट विष के समान अत्यन्त खारा और गर्म जल उनके घावों में भरकर असहनीय पीड़ा देता है, उससे घबड़ाकर वे तट की ओर भागते हैं और उनके कटे हुए हाथ-पैर यथावत् जुड़ जाते हैं। अन्य नारकी उनकी गर्दनों में वज्रमयी साँकलों से भारी-शिलाएँ बाँध कर उन्हें पुनः उसी वैतरणी में डाल देते हैं, वे उसमें डूबने-उतराने लगते हैं। असुरकुमारों की विक्रिया से निर्मित भीमकाय मगर-मच्छों के प्रहार से उनके मस्तक छिन्न-भिन्न होकर गिरते और जुड़ते रहते हैं। वे पुन: तट पर आते हैं, वहाँ निश्चल बाँध दिये जाते हैं और उन्हें लाखों तीक्ष्ण बाणों से बींध देते हैं । पश्चात् कदम्ब के फूलों के आकार वाली ऐसी बालू में जिसमें बालिका के चित्त के समान प्रवेश करना कठिन है, जो वज्रमय दल से शोभित है तथा खैर की लकड़ी के अंगारों के कण समूह के समान गर्म है उस पर बलपूर्वक घसीटे जाने पर जो वेदना होती है वह सहन जिलाओं से भी नहीं कही जा सकती है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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