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________________ मरणकण्डिका - ४५८ तष्ट्वा लोकेऽखिलं गात्रं, क्षुरप्रैनिशितैश्चिरम् । वीजित: क्षार-पानीयैः, सिक्त्वा सिक्त्वा निरन्तरम् ॥१६५६ ।। अर्थ - उस नरक लोक में नारकियों ने पैने खुरपे से तुम्हारा सारा शरीर चिरकाल तक छीला था तथा निरन्तर खारे जल से सींच-सींच कर वेदना-वृद्धि हेतु पंखों से हवा की थी॥१६५६॥ शामिः सूचिपि माछिसाखिल-विग्रहः । विगलद्रक्तधाराभिः, कर्दमी-कृत-भूतलः ॥१६५७।। अर्थ - वहाँ तुम्हारा सारा शरीर शक्ति नामक शस्त्र से, सुइयों से एवं तलवारों से छिन्न-भिन्न किया गया था जिससे तुम्हारे शरीर से निकलती हुई रक्त की बड़ी-बड़ी धाराओं ने वहाँ के सारे भूतल को कीचड़-युक्त कर दिया था।॥१६५७॥ प्रश्न - नारकियों के वैक्रियिक शरीर में रक्त एवं हड्डी आदि होते हैं क्या ? उत्तर - किसी भी वैक्रियिक शरीर में रक्त एवं हड्डी आदि सप्त धातुएँ नहीं होती हैं। वहाँ ये सब वस्तुएँ दुख देने की दृष्टि से विक्रिया द्वारा ही दर्शायी जाती हैं। यत् स्फुटल्लोचनो दग्धो, ज्वलिते वज्र-पावके। यच्छिन्न-हस्त-पादादिच्छिद्यमानास्थि-सञ्चयः ॥१६५८।। अर्थ - हे क्षपक ! आँखें फोड़ देने पर, जलती हुई वज्रमयी अग्नि से शरीर दग्ध कर देने पर, हाथपैर काट देने पर और हड्डियाँ तोड़ देने पर तुमने वहाँ जो दुख भोगे हैं उनका स्मरण करो ॥१६५८ ॥ शोषणे पेषणे कर्षणे घर्षणे, लोटने मोटने कुट्टने पाटने। त्रासने ताडणे मर्दने चूर्णने, छेदने भेदने तोदने यच्छ्रितः ॥१६५९॥ अर्थ - हे क्षपक ! नरकों में नारकी जीवों द्वारा शोषण करना, पीसना, कर्षण/कसना, घर्षण/घिसना, लुटाना, मोड़ना, कूटना, उपाड़ना, डराना, ताड़ना, मर्दन करना या मसलना, चूर्ण करना, छेदना, भेदना एवं पीड़ा, इन क्रियाओं से जो भयंकर दुख दिये गये हैं, उनका स्मरण करो॥१६५९ ॥ दुःकृतकर्म-विपाक-वशोत्थं, कालमपारमनन्तमसह्यम् । सोढमिदं हृदये कुरु सर्व, कातरतां विजहीहि सुबुद्धे ! ।।१६६०॥ इति श्वन-गतिः। अर्थ - हे क्षपकराज ! नरकों में तुमने अपार अर्थात् अनन्तानन्त काल में अनन्त काल तक पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से उत्पन्न अपार, अनन्त और असहय दुख सहन किये हैं। हे सुबुद्धे ! अब तुम उन सब भुक्त दुखों का हृदय में विचार करो एवं वर्तमान की किंचित् वेदना से आयी हुई इस कायरता को छोड़ दो, छोड़ दो॥१६६०॥ इस प्रकार क्षुधा-तृषा आदि की वेदना से आकुलित क्षपक को निर्यापकाचार्य ने नरकगति के दुखों का उपदेश देकर धैर्य दिलाया है। इस प्रकार नरकगति के दुःखों का वर्णन समाप्त हुआ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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