SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ३७ दोषों के निराकरण हेतु केशलोच किया जाता है संस्काराभावत: केशाः, सम्मूर्च्छन्ति निरन्तरम् । विशन्त्यागन्तवो जीवा, दूरक्षाः शयनादिषु ।।८९ ॥ अर्थ - संस्कार के अभाव में केश जूं, लीख आदि सम्पूर्छन जीवों के आधार होते हैं और वे सम्मूर्छन जीव शयन आदि के समय दुष्प्रतिकार होते हैं तथा अन्यत्र से आते हुए भी कीट आदि देखे जाते हैं।८९।। प्रश्न - केशलोच न करने में क्या दोष हैं ? उत्तर - साधुजन कभी पानी से बाल नहीं धोते, तेलादि का मर्दन नहीं करते एवं सुगन्धित वस्तु नहीं लगाते, अतः केशों में सम्मूर्च्छन जूं एवं लीखादि उत्पन्न हो जाते हैं, तब साधु के सोने पर, धूप में जाने पर एवं सिर के टकरा जाने पर उन जीवों को बाधा होती है। अर्थात् भिन्न देश, भिन्न काल एवं भिन्न स्वभाव होने से अथवा खुजली आदि करने से उन जीवों को पीड़ा होती है। जो जीव केशों में उत्पन्न होते हैं वे तो दुष्प्रतिकार हैं ही किन्तु अन्यत्र से आकर भी अनेक कीटाणु बालों में घुस जाते हैं। यदि दिगम्बर साधुओं की केशलोच व्यवस्था न होती तो अन्य मतावलम्बियों के साधुजनों में और इनमें भेद करना दुष्कर हो जाता। केशलोच न करने से ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं इसीलिए जिनेन्द्रदेव ने केशलोच करने की आज्ञा प्रदान की है। संक्लेश: पीड्यमानस्य, यूका-लिखेण दुःसहः। पीड्यते तच्च कण्डूतौ, यतो लोचस्ततो मतः ॥१०॥ अर्थ - जूं और लीखों से पीड़ित साधु के दुस्सह संक्लेश उत्पन्न होता है। खुजाने पर वे जूं आदि भी पीड़ित होते हैं, इस कारण यह केशलोच किया जाता है ।।९० ॥ केशलोच करने में अनेक गुण हैं मुण्डत्वं कुर्वतो लोचमस्त्यतो निर्विकारता। प्रकृष्टां कुरुते चेष्टां, वीतरागमनास्ततः ॥२१॥ अर्थ - लोच करने से सिर मुण्डा हो जाता है। सिर की मुण्डता से निर्विकारता आती है, विकार रहित क्रियाशील होने से प्रकृष्ट चेष्टा अर्थात् मुक्तिमार्ग सम्बन्धी ध्यानादि क्रिया में प्रवृत्ति हो जाती है और वीतरागभाव जाग्रत हो जाते हैं ॥११॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - मैं नग्न हूँ और शिर से मुण्डित हूँ, इस वेष में मेरा विलासपूर्ण गमन आदि देख कर लोग हँसेंगे कि नपुंसक के स्त्रीविलास के सदृश इस मुण्डित साधु की विलासिता कैसी शोभती है; ऐसा विचार कर तथा शृंगार, कथा, कटाक्षयुक्त निरीक्षण आदि विकारभावों को दूर कर वह साधु केवल मुक्ति के लिए उद्यम करता है। यह इस श्लोक का अभिप्राय है। दम्यमानस्य लोचेन, हषीकार्थेऽस्य नाग्रहः ।। स्वाधीनत्वमदोषत्वं, निर्ममत्वं च विग्रहे ॥१२॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy