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________________ मरणकण्डिका - ३८ अर्थ - केशलोच से मन दमित हो जाता है, इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति क्षीण हो जाती है, स्वाधीनता, निर्दोषता और निर्ममत्व भाव प्रगट हो जाते हैं।॥१२॥ आत्मीया दर्शिता श्रद्धा, धर्मे लोचं वितन्यता। भाषितं सकलं दुःखं, दुश्चरं चरितं तपः॥९३ ।। अर्थ - केशलोच करने से आत्मा की धर्म अर्थात् चारित्र में श्रद्धा प्रदर्शित होती है, शरीर कष्ट-सहिष्णु बनता है, दुश्चर चारित्र एवं कठोर तप में प्रवृत्ति होती है ।।९३ ।। प्रश्न - कष्ट-सहिष्णुता से क्या लाभ है? उत्तर - शारीरिक कष्ट सहज में सहन नहीं होता। बार-बार केशलोच करने से शरीर-निर्ममता और धर्म में श्रद्धा दृढ़ हो जाती है, दृढ़ श्रद्धा से उपवृंहण गुण वृद्धिंगत होता है, केशलोच की पीड़ा सहन कर लेने पर शारीरिक अन्य कष्ट सहन करने का सामर्थ्य प्रगट हो जाता है और कष्ट सहन करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है। ।। लोच प्रकरण पूर्ण ॥ __ व्युत्सृष्टशरीरता अर्थात् शरीर से ममत्व त्याग न भू-दन्तौष्ठ-कर्णाक्षि, नन-केशादिसंस्कृतिम् । भजन्त्युद्वर्तनं स्नानं, नाभ्यङ्गं ब्रह्मचारिणः ॥९४ ॥ अर्थ - ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने वाले साधुजन अपने भौं, दाँत, ओठ, कान, आँख, नन एवं केशादि का संस्कार नहीं करते, उबटन नहीं लगाते तथा अभ्यंग स्नान नहीं करते हैं ।।९४ ।। प्रश्न - भौं, दाँत आदि के संस्कार किस प्रकार किये जाते हैं ? उत्तर - विकट रूप से उठे हुए रोमों को उखाड़ना, उन्हें व्यवस्थित करना एवं लटकती हुई भौं को ऊँचा करना भौं का संस्कार है । दाँत का मैल दूर करना, रगड़ना, घिसना और रंगना आदि दाँतों का संस्कार है; ओठों का मल दूर करना या रंगना ओठों का संस्कार है; छोटे कानों को बड़ा और बड़े कानों को छोटे करना, मैल निकालना, रोग के बिना भी तैल डालना, इत्र लगाना कर्ण का संस्कार है; नेत्र धोना और अञ्जन आदि लगाना आँखों का संस्कार है; काटना, छाँटना. रगड़ना और रंगना नख का संस्कार है तथा शरीर में तेल आदि का मालिश करना अभ्यंग स्नान है। पापवर्धक ऐसे कोई संस्कार साधु नहीं करता। न स्कन्धकुट्टनं वासं, माल्यं धूप-विलेपनम् । कराभ्यां मलनं चूर्ण, चरणाभ्यां च मर्दनम् ॥९५ ।। अर्थ - कन्धों को दृढ़ बनाने हेतु उन्हें कूटना, मुख को सुवासित करने हेतु जातिफल आदि का प्रयोग; पुष्प, रत्न, मोती एवं स्वर्ण की माला, कालागरु आदि धूप, सुगन्धित पदार्थों का विलेपन, हाथों से शरीर की मालिश करना एवं पैरों से मर्दन आदि करना, इत्यादि कार्य ब्रह्मचर्य व्रत में तत्पर साधु कदापि नहीं करते हैं ।।९५॥ या रूक्षा लोच-बीभत्सा, सर्वाङ्गीण-मला तनुः । सा रक्षा ब्रह्मचर्यस्य, प्ररूढ-नख-लोमिका ।।९६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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