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________________ मरणकण्डिका - ३६८ अर्थ - मान कषाय के वश होकर अर्हन्त पद, गणधर, आचार्य, सौभाग्य एवं आदेयता आदि प्राप्ति की प्रार्थना करना, संसार को बढ़ाने वाला अप्रशस्त निदान है || १२७५ ।। क्रोध कषाय के वश होकर अपने मरण के समय ऐसी याचना करना "कि मैं अन्य के वध का कारण बनूँ" इस प्रकार की खोटी बुद्धि भी अप्रशस्त निदान है। जैसे वशिष्ठ मुनि ने मरते समय उग्रसेन राजा के घात का निदान किया था ॥ १२७६ ॥ * वशिष्ठ मुनिकी कथा वशिष्ठ नामका जटाधारी तपस्वी था। उसे एक बार समीचीन जैनधर्मका उपदेश मिला और कालादि लब्धिको प्राप्त होकर वह जैन दिगंबर मुनि बन गया। अब उन्होंने कठोर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया। किसी दिन मथुरा नगरीके निकट वनमें आकर भासोपवास एवं प्रतिमा योग धारण किया। मधुराके राजा उग्रसेन को मुनिकी तपस्या ज्ञात हुई तब वह बड़ी भक्तिसे उनके दर्शन करनेके लिये वनमें गया। राजाने नगरमें कहलाया कि वशिष्ठ मुनिके मासोपवासका पारणा मेरे यहाँ ही होगा। पारणा का दिन आया, महाराज नगरमें प्रविष्ट हुए अन्यत्र पड़गाहन नहीं होनेसे वे राज-महलमें आये किन्तु उस दिन राजा किसी राज्य संबंधी महत्त्वपूर्ण कार्यमें उलझा हुआ था, अत: आहारकी बातको भूल गया। मुनिराज बिना आहार किये वनमें चले गये और पुनः एक मासका उपवास धारण किया। पुनः आहारके लिये आये किन्तु राजा उन्हें आहार नहीं दे पाया। ऐसा तीन बार हुआ। अबकी बार मुनि अत्यंत क्षीणशक्ति हो चुके थे, मार्गमें लौटते हुए चक्कर आनेसे गिर पड़े। तब नागरिक लोग दुःखी होकर कहने लगे कि अहो ! यह हमारा राजा बड़ा निर्दय हो गया है। देखो ! हमको आहार नहीं देने देता और आप भी नहीं देता, इत्यादि । इस वार्ताको वशिष्ठ मुनिने सुना, उनको राजापर अत्यधिक क्रोध आया और क्रोध में आकर निदान कर डाला कि मैं इसी उग्रसेनका पुत्र होऊँ और राजाको कष्ट देऊँ। इसी भाव में उनकी मृत्यु हुई। राजाके यहाँ जन्म हुआ। बालकका नाम कंस रखा। इसने आगे जाकर उग्रसेनको बहुत यातना दी। इसप्रकार अप्रशस्त निदानसे वशिष्ठ मुनिकी तपस्या दूषित हुई। भोगकृत निदान स्वर्गभोगि- नरनाथ-कामिनीः, श्रेष्ठि- चक्रि-बल- सार्थवाहिनाम् । भोग- भूतिमधियो निदानकं, कांक्षतो भवति भोग- कारणम् ।। १२७७ ।। अर्थ- स्वर्ग की, धरणेन्द्र पद की एवं राजापना, भोगों के लिए नारीपना, श्रेष्ठिपना, चक्रवर्तीपना, बलदेव नारायणपना, सार्थवाहपना प्राप्त होने की जो कुबुद्धि वांछा करता है, उसका यह सब चित्तविकार भोगनिदान है ।। १२७७ ॥ वृद्ध-संयम - तपः पराक्रमः, शुद्ध-गुप्तिकरणोऽपि ना ततः । याति जन्मजलधिं सुदुस्तरं, कापरस्य गणना कुचेतसः ।।१२७८ ।। अर्थ- जो उत्कृष्ट संयमधारी हो, तपवृद्ध हो, पराक्रमी हो और भलीप्रकार गुप्तियों का पालन करने
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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